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जीवन का रहस्य
के सम्बन्ध में है । कल्पना कीजिए, अन्तराय कर्म-वश किसी वस्तु की प्राप्ति नहीं है, क्या इतने से कोई नया कर्म बँधता है ? किसी वस्तु के मिलने पर आपको सुख होता है, और किसी वस्तु के मिलने पर आपको दुःख होता है । सुख और दुःख क्या हैं ? सुख और दुःख वेदनीय कर्म का फल ही तो है । सुख आने पर भी यदि आपके मन में समभाव बना रहता है, और दु:ख आने पर भी आपके मन में अक्षोभ भाव बना रहता है, तब आपको किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं हो सकता । परन्तु जब लाभ और अलाभ तथा सुख और दुःख के साथ राग और द्वेष का सम्बन्ध जोड़ दिया जाता है, तब ये सब आपको बांध सकते हैं । यही बात आयुष्य कर्म, नाम कर्म और गोत्र कर्म के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है । यह तो सत्य है, कि कर्म का भोग अवश्य भोगना पड़ता है । किन्तु समभाव के साथ भोगने पर कर्म का क्षय हो जाता है और विषम भाव के साथ भोगने पर कर्म का नवीन बन्ध हो जाता है । भोग अवश्यंभावी अवश्य है, किन्तु भोग को भोगने की भी एक कला है । वह कला है, एकमात्र समत्व-योग । दुःख आने पर व्याकुल मत बनो और सुख आने पर अहंकार मत करो । इसी सिद्धान्त को समत्व-योग कहा गया है । जब तक जीवन में समत्व-योग नहीं आयेगा, कर्म की परम्परा का अन्त भी तब तक नहीं आ सकेगा । मिथ्या दृष्टि का भोग बन्ध के लिए होता है और सम्यक् दृष्टि का भोग निर्जरा का हेतु बनता है । इस कथन का यही रहस्य है, कि सम्यक दृष्टि आत्मा समत्व-योग की साधना में अपने जीवन को सन्तुलित रखने का प्रयत्न करता है । अतः जितना-जितना वह समत्व-योग साध पाता है, उतना-उतना कर्म-बन्ध से परे होता जाता है । मेरे कथन का अभिप्राय यह है, कि आठ कर्मों में से शेष सात कर्म बन्धन के हेतु तभी होते हैं, जब कि भोग काल में मोहनीय कर्म का उनके साथ योग रहता है ।
मैं आपसे मोहनीय कर्म के सम्बन्ध में कह रहा था, कि आठ कर्मों में से यह सबसे प्रबल कर्म है । मोह आत्मा का विभाव है, जिसके कारण आत्मा अपने स्वभाव में स्थिर नहीं रह पाता । संसार के प्रत्येक निम्न भूमिका के जीवनों में मन्द अथवा तीव्र रूप में मोह सत्ता अवश्य ही रहती है । एक भी संसारी आकुल आत्मा ऐसा नहीं है, जिसमें मोह
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