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समाज और संस्कृति
है, जिसमें गन्ध है और जिसमें स्पर्श है । जैन परिभाषा के अनुसार जिसमें ये चारों चीजें मिलें उसे मूर्त एवं पुद्गल कहा जाता है । इस पुद्गल को ग्रहण करना, यहीं तक इन्द्रियों की शक्ति है । इन जड़ पुद्गलों तक ही इन्द्रियों की गति है, उनके आगे तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं है । हम जो कुछ देखते हैं, वह भी पुद्गल है । हम जो कुछ सुनते हैं वह भी पुद्गल है । हम जो कुछ चखते हैं, वह भी पुद्गल है । हम जो कुछ सूंघते हैं, वह भी पुद्गल है और हम जो कुछ छूते हैं, वह भी पुद्गल है । इस प्रकार इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब पुद्गल है, वह सब मूर्त है । इन्द्रियाँ मूर्त को ही ग्रहण कर सकती हैं, अमूर्त को देखने की शक्ति किसी भी इन्द्रिय में नहीं है । हमारी साधना के जितने भी बाह्य उपकरण हैं—आसन, वस्त्र अथवा माला आदि, ये सब मूर्त हैं । ये सब पुद्गलमय हैं । इन सबसे परे एक शक्ति है, जिसे आत्मा एवं जीव कहा जाता है । वह आत्मा अथवा चैतन्य शक्ति इस तन से, इस मन से और इन इन्द्रियों से विलक्षण है । तन, मन और इन्द्रिय ये सब पुद्गलमय हैं, किन्तु इन सबसे विलक्षण आत्मा एवं चैतन्य शक्ति अमूर्त है । इस अमूर्त चैतन्य को ही अध्यात्म-तत्व कहा जाता है । मैंने आपसे अभी कहा था, कि हमारे जीवन के दो रूप हैं, एक वह जिसे हम इन्द्रिय के द्वारा पकड़ सकते हैं । बाह्य नाम और रूपात्मक जितना भी जगत है, वह सब पुद्गलमय होने के कारण इन्द्रिय-ग्राही हो सकता है, किन्तु आत्मा एवं चैतन्य शक्ति जीवन का एक वह रूप है, जिसका अनुभव तो किया जा सकता है, किन्तु जिसे इन्द्रियों अथवा मन के द्वारा पकड़ा नहीं जा सकता । इसीलिए इस शक्ति को इन्द्रियातीत अवस्था कहते हैं । आत्मा एक वह तत्व है, जो समस्त इन्द्रियों से अतीत है, और तो क्या, मनुष्य के मन से भी अतीत है ।
अब प्रश्न यह है, कि शास्त्र में जिसे संयम अथवा चारित्र कहा गया है, वह मूर्त है अथवा अमूर्त है ? जैन दर्शन के अनुसार चारित्र दो प्रकार का है—द्रव्य-चारित्र और भाव-चारित्र । द्रव्य-चारित्र, चारित्र के बाह्य उपकरणों को कहते हैं, किन्तु भाव-चारित्र तो आत्मा का ही एक परिणाम है अथवा आत्मा का एक गुण है । आत्मा का परिणाम कहें अथवा गुण कहें, बात एक ही है । आत्मा का गुण अथवा आत्मा का परिणाम अमूर्त ही हो सकता है, मूर्त नहीं । क्योंकि आत्मा स्वयं अमूर्त है, तो अमूर्त के गुण भी अमूर्त ही होंगे, मूर्त नहीं । जिस प्रकार दर्शन आत्मा का
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