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समाज और संस्कृति
की बात को सुनकर तुम्हें मन में अधिक पीड़ा होगी, क्योंकि उसका पता तो था नहीं । तुम्हारी सारी सम्पत्ति लुट गई तो कोई चिन्ता की बात नहीं । यह हीरा बचा रह गया, यही बहुत कुछ है, बल्कि सब कुछ है ।" सेठ के पुत्र ने जब तावीज के सम्बन्ध में बताया तो जौहरी ने कहा-"तुम्हारे पिता बड़े ही बुद्धिमान थे, कि उन्होंने इसे तावीज में रखकर तुम्हारे गले में लटका दिया, जिससे किसी को पता न चले । इससे भी अधिक बुद्धिमानी यह की कि उसका सबसे ऊपरी खोल ताँबे का बनाया, जिससे किसी के मन में उसे देखकर उसके प्रति लोभ भी जागृत न हो ।” आगे अपनी बात को जारी रखते हुए जौहरी ने कहा-"तुम चाहो तो इसका मूल्य ले सकते हो और किसी भी प्रकार का व्यापार करना चाहो, तो तुम्हें व्यापार भी कराया जा सकता है । यह हीरा तुम्हारे पास है, तो सब कुछ तुम्हारे पास है ।" सेठ के पुत्र ने व्यापार प्रारम्भ किया और फिर अल्प काल में ही अपार धन पैदा कर लिया ।
कहानी परिसमाप्त हो गई, किन्तु उसके भाव को समझने का प्रयत्न कीजिए । मनुष्य-जीवन में सब कुछ खोकर भी यदि व्यक्ति अन्त में सँभल जाता है, और मूल स्थिति को पा लेता है, तब भी उसका कुछ बिगड़ता नहीं है । दूसरी ओर सेठ के पुत्र के पास अमूल्य हीरा होने पर भी वह अपने आपको निर्धन क्यों समझने लगा था ? इसका उत्तर यही है, कि उसका उसे परिज्ञान न था । पास में हीरा होने पर भी वह अपने आपको गरीब और असहाय समझकर पीड़ित होता रहा, किन्तु हीरे का परिज्ञान होते ही उसकी पीड़ा और दरिद्रता सब दूर हो गई । प्रत्येक व्यक्ति स्वस्वरूप का हीरा लिए हुए है, उसे कहीं बाहर से नहीं पाना है । जो कुछ है, पास ही है ।
पास ही रे हीरे की खान,
खोजता कहाँ उसे नादान । संसार में प्रत्येक आत्मा के पास अनन्त चैतन्य रूप शुद्ध स्वस्वरूप का हीरा विद्यमान है, किन्तु उसे उसका पता न होने के कारण, पीड़ित और व्यथित हो जाना पड़ता है । यदि संसार. आत्मा को यह परिबोध हो जाए, कि मैं दीन-हीन नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ, स्वभावतः परमात्म-शक्ति हूँ, तो फिर उसे किसी प्रकार की पीड़ा और व्यथा हो ही नहीं सकती ।
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