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'समाज और संस्कृति
में कहा गया है कि “All are not saints that go to Church." जो अपने घर से निकल कर चर्च की ओर आगे बढ़ रहे हैं, उन सभी को सन्त समझने की भूल मत करो । जैन-दर्शन के अनुसार साधक का बाना पहनने मात्र से ही कोई साधक नहीं बन जाता । जैन-दर्शन के अनुसार साधक बनने की सबसे आवश्यक और सबसे पहली शर्त यह है, कि उसके मिथ्यात्व का विकल्प दूर हो जाना चाहिए । तब मिथ्यात्व का विकल्प दूर हो जाएगा, तभी वह अपने ध्येय, साध्य और लक्ष्य का निश्चय कर सकेगा । यदि साध्य स्थिर नहीं हुआ, तो साधना किसकी होगी और कैसे होगी ?
कल्पना कीजिए, एक यात्री है जो अपने पथ पर चला जा रहा है । बड़ी तेजी के साथ वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ रहा है । अपने रास्ते पर बढ़ते हुए उसे इतना भी अवकाश नहीं, कि वह इधर-उधर तो झाँक कर देख ले । आपने आगे बढ़कर उस यात्री से पूछा, कि “आप कहाँ से आ रहे हैं और कहाँ जा रहे हैं ? आपका लक्ष्य क्या है और आपको कहाँ पहुँचना है ?" आपके प्रश्न के उत्तर में यदि वह यात्री आपसे यह कहे कि "यह तो मुझे मालूम नहीं कि मैं कहाँ से आ रहा हूँ और मुझे कहाँ पहुँचना है; मेरा लक्ष्य क्या है ?" उसके उत्तर को सुनकर आप क्या सोचते हैं ? मेरे विचार में आप यही सोच सकते हैं, कि यह एक पागल व्यक्ति है, जिसे अपने गन्तव्य स्थान का परिबोध भी नहीं है । उसके मन की थाह पाने के लिए आपने एक प्रश्न और पूछ लिया, कि . फिर इतनी दौड़-धूप किसलिए कर रहे हो ? आपके प्रश्न के उत्तर में यदि वह यह कहता है कि बस, यूँ ही कर रहा हूँ, तो उसकी इस बात पर आपको हँसी आ जाती है । आपने हँसी को रोक कर और गम्भीर बनकर फिर एक प्रश्न और पूछ लिया कि “जिस मार्ग पर तुम बढ़े चले जा रहे हो, वह मार्ग सही है, अथवा गलत ?" आपके प्रश्न के उत्तर में यदि वह यही कहे कि मुझे मालूम नहीं है, तो आप उसे पक्का पागल समझ लेते हैं । भला जिस यात्री की यात्रा का न कोई लक्ष्य है और न कोई उद्देश्य है तथा जिसे न कोई मार्ग का परिज्ञान ही है; उसे यात्री नहीं कहा जा सकता; उसे तो भटकने वाला ही कहा जा सकता है । मिथ्या दृष्टि और नास्तिक व्यक्ति अध्यात्म-शास्त्र के अनुसार, यात्री नहीं होता, भटकने वाला ही होता है । यात्री वह होता है, जिसका अपना एक लक्ष्य होता है, एक साध्य होता है और जिस पथ पर वह बढ़ रहा
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