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समाज और संस्कृति
अनैतिकता से दुःख । इसके विपरीत यदि अनैतिकता से भी सुख मिलता है, तो बड़ी गड़बड़ी की बात होगी । यह तो वही बात हुई कि व्यक्ति बबूल का वृक्ष बोए और आम तोड़ने की इच्छा करे अथवा दलदल में ईंट का मकान खड़ा करने की परिकल्पना करे । हम देखते हैं, कि बिना आध्यात्मिक्ता और नैतिकता के कभी किसी को सुख नहीं मिला । मनुष्य वही कुछ पाता है, जो कुछ वह अपने जीवन की भूमि में वपन करता है । आप किसी भी पार्थिव वस्तु को ले लीजिए, यदि आप ठीक प्रकार से खोज करेंगे, तो मानसिक जगत में आपको उसकी आधारभूत प्रक्रिया अवश्य मिल जाएगी । उदाहरण के लिए आप एक बीज को ही लीजिए । आपने बीज लिया और भूमि में दबा दिया । वह अदृश्य हो जाता है । यथार्थ में वह अदृश्य होकर भी अदृश्य नहीं होने पाता । समय पाकर और अनुकूल संयोग पाकर वह अंकुर के रूप में फूट पड़ता है, फिर उसका पौधा बनता है, अन्त में वह एक विशाल वृक्ष बन जाता है, फिर उसमें पुष्प और फल लगते हैं । एक छोटे से बीज ने हजारों-हजार सुरभित और सुन्दर पुष्पों को जन्म दिया, और हजारों-हजारों मधुर और रुचिर फलों को उत्पन्न किया । ठीक इसी क्रम से हमारी मानसिक प्रक्रिया भी होती है । हमारे विचार बीज हैं, मानस-भूमि में बोए जाने से वे उगते हैं और विकास को प्राप्त होते हैं, फिर अच्छे और बुरे कार्यों के रूप में पल्लवित, पुष्पित और फलित होते हैं । यदि हमने अपनी मानस-भूमि में सुख के सुन्दर बीज बोए हैं, तो हमें सुख ही सुख मिलेगा, दुःख नहीं । इसके विपरीत मनुष्य ने यदि अपनी मनोभूमि में दुःख और क्लेश के बीज बोए हैं, तो उसे सुख, शान्ति और सन्तोष कैसे उपलब्ध हो सकता है ? भारत के अध्यात्मवादी दर्शन का यह एक शाश्वत सिद्धान्त है, कि मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसका फल भी उसे उसी रूप में प्राप्त होता है । एक पाश्चात्य विद्वान ने भी अपने एक ग्रन्थ में इसी सिद्धान्त की अभिव्यक्ति की है कि “As you think so you become." जैसा तुम सोचोगे वैसा ही तुम बन सकोगे । वस्तुतः प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों का प्रतिफल होता है । आज जो कुछ हम हैं, वह सब कुछ हमारे पूर्व विचारों का फल है ।
मैं आपसे जीवन की बात कह रहा था । जीवन क्या है ? जीवन एक ऐसी चादर है, जो काले और सफेद धागों से बनी है । हमें करना यह है, कि उसके सफेदपन को सुरक्षित रखें और उसके कालेपन को
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