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स्वभाव और विभाव
का अर्थ है-एक वह सिद्धान्त जो निराशा के घोर अन्धकार में भी प्रकाश प्रदान करता है, और जो हताश एवं निराश जीवन को उत्साह एवं प्रेरणा प्रदान करता है । वह कहता है, कि जो कुछ तुमने किया, वही आज तुम्हें मिला है और जो कुछ आज तुम कर रहे हो, वह भविष्य में तुम्हें मिलेगा । कर्मवाद के अनुसार दुःख का उत्तरदायित्व भी मनुष्य के अपने जीवन पर है, और सुख का उत्तरदायित्व भी मनुष्य के अपने जीवन पर ही है । फिर सुख आने पर हँसना क्यों और दुःख आने पर रोना क्यों ? सुख और दुःख दोनों के बीज हमारी अपनी अन्तर आत्मा में ही हैं ।
कर्मवाद की इस व्याख्या को सुनकर वह विदेशी विद्वान् बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला-"आपकी बात बिल्कुल ठीक है । आपके इस कर्मवाद से हताश और निराश जीवन को बड़ी प्रेरणा मिलती है ।" ____ मैं आपसे जैन-दर्शन और जैन-धर्म की तथा उसके मुख्य सिद्धान्तों की चर्चा कर रहा था । जैन-दर्शन का, जैन-धर्म का और जैन-संस्कृति का जो सबसे गम्भीर सिद्धान्त है, वह है 'द्रव्यानुयोग' का । 'द्रव्यानुयोग' एक वह सिद्धान्त है, जिसमें जैन-दर्शन के मूलभूत तत्वों पर विचार किया गया है, और चिन्तन किया गया है । जैन-दर्शन के अनुसार षड्द्रव्य, सप्ततत्व अथवा नवपदार्थ ही द्रव्यानुयोग है । इनमें जीव अर्थात् आत्मा मुख्य हैं । आत्मा पर द्रव्यानुयोग में निश्चय-दृष्टि और व्यवहार-दृष्टि से गम्भीर विचार किया गया है । इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक आत्मा को बाहर से न कुछ लेना है और न बाहर में कुछ देना है । जो कुछ लेना है, अपने अन्दर से ही लेना है और जो कुछ देना है, अपने को ही देना है, किसी अन्य को नहीं । क्योंकि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से न कुछ लेता है, और न उसको कुछ देता है । यह है निश्चय-दृष्टि । इस निश्चय दृष्टि को सम्भवतः कुछ लोग समझ भी नहीं पाते और कुछ लोग समझकर भी इसका गलत प्रयोग कर सकते हैं । परन्तु इसमें निश्चय दृष्टि का अपना कोई दोष नहीं है । गलत प्रयोग किसी भी सिद्धात का किया जा सकता है । पर इतने मात्र से ही वह सिद्धान्त व्यर्थ और निरर्थक नहीं बन जाता है । निश्चय दृष्टि का सबसे बड़ा उपयोग अपने प्रसुप्त आत्म-भाव को जागृत करने के लिए ही किया जाना चाहिए । जो आत्मा हताश और निराश है, व्यथित और पीड़ित है, उसे उत्साहित करना और उसकी ग्लानि को दूर करना, यही निश्चय-दृष्टि का सबमें बड़ा उपयोग है । निश्चय-दृष्टि का सिद्धान्त प्रत्येक साधक को यह कहता
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