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समाज और संस्कृति
ही है । यह साधना एक ऐसी साधना है, कि इसकी तुलना में विश्व का समग्र वैभव, संसार के समस्त-सुख फीका पड़ जाता है । कहाँ अमृत का महासागर और कहाँ एक गन्दी नाली का प्रवहमान गन्दा पानी ? इन दोनों में किसी भी प्रकार की तुलना नहीं की जा सकती । और तो क्या, विश्व का समस्त धन, विश्व की समस्त सम्पत्ति और इन्द्र का समग्र साम्राज्य भी उसके समक्ष कुछ नहीं है ।
संसार का साम्राज्य और संसार का भौतिक सुख अध्यात्म-साधना की तुलना में बहुत ही हीन कोटि का ठहरता है । भारतीय संस्कृति में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है, कि सम्राट और सन्त में से सन्त ही महान हैं । क्योंकि उनके पास आध्यात्मिकता है, जीवन का समरसी भाव है और समत्वयोग की साधना का प्रबल बल है । सम्राट् भौतिक वैभव का प्रतीक है, वह भौतिक शक्ति का प्रतीक है । सम्राट के जीवन में समाधि और शान्ति का अभाव होता है । विशाल साम्राज्य के होते हुए भी, अध्यात्म भाव के विकास की दृष्टि से, एक एक भिखारी और कंगाल जैसा ही प्रतीत होता है । यही कारण है, कि भारतीय संस्कृति में सन्त के चरणों में मस्तक झुकाया जाता है । जनता के हृदय में सन्त के प्रति सहज आदर-बुद्धि होती है, क्योंकि उसने अपने जीवन के कण-कण में अध्यात्म-साधना के भव्य भाव को रमा लिया है, पचा लिया है । इसी आधार पर मैं आपसे यह कह रहा था, कि अध्यात्म-साधना के समक्ष भौतिक ऐश्वर्य निष्प्राण हो जाता है ।
मुझे यहाँ पर जैन इतिहास की एक सुन्दर जीवन-गाथा का स्मरण हो आया है । एक बार मगध-सम्राट श्रेणिक भगवान महावीर को वन्दन करने के लिए और उनके पवित्र दर्शन के लिए उनकी सेवा में आया । राजा श्रेणिक ने आकर अत्यन्त भक्ति-भाव के साथ भगवान् को विधिपूर्वक वन्दन और नमस्कार किया । भगवान् महावीर के समीप ही उपविष्ट उनके प्रधान शिष्य गणधर गौतम को भी श्रेणिक ने भक्तिपूर्वक वन्दन किया । ज्यों ही राजा श्रेणिक गणधर गौतम को वन्दन करके खड़े हुए, कि उनके मन में एक तरंग उठी, एक पवित्र विचार उत्पन्न हुआ, उनके प्रसुप्त मन में एक जागृति आई । राजा श्रेणिक सोचने लगे मैं जब-जब भी यहाँ पर आया हूँ, तब-तब मैंने भगवान् को और इन्द्रभूति गौतम आदि प्रमुख मुनिवरों को ही वन्दन किया है, शेष सन्तों को मैंने आज तक विधिपूर्वक वन्दन नहीं किया । भगवान के ये समस्त शिष्य त्याग,-शील हैं; वैराग्यशील हैं, श्रुतधर हैं, तथा ज्ञान और चरित्र की साधना करने वाले अध्यात्म-साधक हैं। तब फिर क्यों न मुझे विधिपूर्वक इन सबको
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