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अध्यात्म-साधना
साधक अपनी साधना से अपने साध्य की उपलब्धि करता है । शास्त्र में साधना के नाना रूप और नाना प्रकार वर्णित किए गये हैं, प्रत्येक साधक अपनी अभिरुचि और साथ ही अपनी शक्ति के अनुसार साधना का चुनाव करता है । किसी भी प्रकार की साधना को अङ्गीकार करने से पूर्व भली-भाँति यह विचार कर लेना चाहिए, कि इस साधना को मैं पूरी कर सकता हूँ या नहीं । जो साधक विवेक और बुद्धि के प्रकाश में साधना प्रारम्भ करते हैं, वे अपनी साधना में अवश्य ही सफल होते हैं, इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है । ____ मैं आपसे साधना की बात कह रहा था । मैंने कहा कि शास्त्रों में साधना के अनेक रूप वर्णित किए गये हैं, किन्तु मुख्य रूप में साधना के दो भेद हैं—एक गृहस्थ धर्म की साधना और दूसरी साधु धर्म की साधना । गृहस्थ जीवन के अव्रती सम्यग् दृष्टि, व्रती आदि अनेक रूप हैं और साधु-जीवन के भी जिनकल्प आदि अनेक रूप हैं । साधना की मूल धारा एक होते हुए भी आगे चलकर उसमें हजारों-हजार उपधाराएँ फूट पड़ती हैं । साधना कैसी भी क्यों न हो, चाहे वह गृहस्थ धर्म की हो अथवा साधु धर्म की हो, एक बात साधक को अवश्य ही सोचनी चाहिए कि उसे साधना का चुनाव अपनी अभिरुचि और अपनी शक्ति के अनुसार ही करना चाहिए । यदि कोई व्यक्ति बलपूर्वक, हठपूर्वक अथवा जबरदस्ती से आगे बढ़ने की चेष्टा करता है, तो आगे चलकर साधना का प्राण तत्व उसमें से निकल जाता है और केवल लोक-दिखावा ही उसके पास रह जाता है । यश और तिष्ठा प्राप्त करना ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है । जब साधना में मन का रस नहीं रहता, जब साधना में समत्वयोग नहीं रहता, तब वह साधना अन्दर-ही-अन्दर खोखली हो जाती है । साधना का प्राण-तत्व, जो आध्यात्मिक भाव है, वह उसमें नहीं रहने पाता । हमारी साधना का एक मात्र लक्ष्य है, अध्यात्म भाव । यह अध्यात्मभाव वहीं पर रह सकता है, जहाँ मन में समाधि हो और जहाँ मन में शान्ति हो । मन की समाधि और शान्ति वहीं रहती है, जहाँ जीवन में समरसी भाव आ जाता है । यह समरसी भाव यदि साधु जीवन में है, तो वह धन्य है और यदि वह समरसी भाव गृहस्थ जीवन में है, तो वह भी बहुत सुन्दर है । मैं उस साधना को साधना नहीं
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