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अध्यात्म-साधना
राजा श्रेणिक का पूर्व जीवन अच्छा नहीं रहा है, उस समय इसने सात नरकों के पाप का भार इकट्ठा कर लिया था । वह बन्धन टूटते रहे, केवल एक नरक का बन्धन शेष रह गया है । यदि कुछ देर तक और वह वन्दन करता रहता, तो यह पहली नरक का बन्धन भी शेष नहीं रह पाता । वन्दन में कर्म निर्जरा की अपूर्व शक्ति है ।
भगवान महावीर और गणधर गौतम की बात को सुन कर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने सोचा सात नरकों में से केवल एक नरक का बन्धन शेष रह गया है, उसे भी ध्वस्त कर क्यों न दूर कर दूं । श्रेणिक अपने स्थान से उठा और फिर वन्दन करने के लिए जाने लगा। श्रेणिक ने स्रोचा, कुछ साधु शेष रह गये हैं, जिन्हें मैं वन्दन नहीं कर पाया था, अब उन्हें भी वन्दन कर लूँ । श्रेणिक की इस भावना को जानकर, भगवान् ने कहा-“सम्राट ! वह बात गई । वन्दन क्रिया में जो निष्काम भाव था, उसके स्थान पर अब सकाम भाव आ गया है । सकाम भाव से किए जाने वाले वन्दन का वह लाभ नहीं हो सकता । जिस समय तुमने पहले वन्दन किया था, उस समय तुम्हारे मन में किसी प्रकार का प्रलोभन नहीं था । उस समय तुम सर्वथा निष्काम भाव से वन्दन कर रहे थे, और वह जो निष्काम भाव की लहर थी, वह एक विलक्षण लहर थी । उस विलक्षण लहर ने तुम्हारे बन्धनों को तोड़ दिया था, परन्तु अब तुम सौदा करने जा रहे हो । पहले कुछ पाने की अभिलाषा न थी और अब बदले में कुछ पाने की अभिलाषा उत्पन्न हो चुकी है । अब तुम नरक दुःख के भय से प्रताड़ित हो । भय और प्रलोभन फिर भले ही वे कैसे ही हों, साधन के विष हैं ।" इस प्रकार श्रेणिक भगवान के वचन को सुनकर हाथ जोड़कर विनम्र-भाव से बोला—“भगवन् ! मैं आपका सेवक हूँ, आपका भक्त हूँ । इतने वर्षों से मैं आपकी सेवा और भक्ति कर रहा हूँ, क्या फिर भी मुझे नरक में जाना पड़ेगा ? आपका भक्त होकर मैं नरक में जाऊँ, यह आपके गौरव के लिए भी उचित न होगा ।" विह्वल होकर श्रेणिक ने भगवान के चरण पकड़ लिए । दुःख आखिर दुःख ही होता है, उससे बचने का प्रयत्न व्यक्ति करता है । जिस समय मनुष्य दुःख विह्वल होता है, उस समय व्यक्ति धर्म, दर्शन और संस्कृति सभी को भूल जाता है, एक मात्र अनागत दुःख का प्रतिकार करना ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है । राजा श्रेणिक के जीवन में भी यही सब कुछ घटित हुआ ।
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