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समाज और संस्कृति
है, पर निश्चय-नय से देखने पर, यह आत्मा हमें पवित्र और निर्मल नजर आता है, इसमें कहीं पर भी विकल्प और विकार दृष्टिगोचर नहीं होते । भारतीय दर्शन और संस्कृति का तथा विशेषतः श्रमण संस्कृति का यह एक मूलभूत सिद्धान्त है, कि वह जिस किसी भी वस्तु का वर्णन करती है, तो उसके मूल स्वरूप को पकड़ने का प्रयत्न करती है ।
मैं आपसे आत्मा के सम्बन्ध में विचार-चर्चा कर रहा था । आत्मा क्या है, उसका स्वरूप क्या है ? इस तथ्य को समझने के लिए निश्चय दृष्टि से परमार्थ-ग्राह्य नय से और भूतार्थ-नय से विचार करने पर, यह कहा जा सकता है, कि संसार की प्रत्येक आत्मा अपने मूल स्वरूप में विशुद्ध और पवित्र है । शुद्ध निश्चयनय से विश्व का चेतन मात्रा शुद्ध है । इस दृष्टि से देखने पर आत्मा में किसी भी प्रकार के विकल्प और विकार की प्रतीति नहीं होने पाती । इस दृष्टि से विचार करने पर फलित यह होता है, कि आत्मा की न बन्ध-दशा है और न मोक्ष-दशा ही । गुणस्थान और मार्गणा भी आत्मा के नहीं होती हैं । परन्तु यह सब कुछ तभी तक है, जब तक कि हम परमभावग्राही एवं शुद्ध निश्चयनय से आत्मा पर विचार करते हैं । व्यवहारनय से जब आत्मा पर विचार किया जाता है, तब वहाँ आत्मा की बन्धदशा और आत्मा की मोक्ष-दशा तथा गुणस्थान एवं मार्गणा आदि सभी कुछ हमें दृष्टिगोचर होता है । व्यवहारनय से विचार करने पर ज्ञात होता है, कि आत्मा में विकल्प भी हैं, और विकार भी हैं । ये सब दृष्टि का भेद है । यही भगवान् का अनेकान्त-मार्ग है । व्यवहार दृष्टि से चैतन्य संसार को देखो, तो सर्वत्र संसारी चैतन्य अशुद्ध और अपवित्र ही नजर आता है, शुद्ध निश्चयनय से विचार करें, तो संसार का चेतनमात्र पवित्र एवं शुद्ध नजर आता है । याद रखिए, हमें व्यवहार और निश्चय दोनों में सन्तुलन रखना है । वर्तमान में एक संसारी आत्मा में जो विकल्प हैं, विकार हैं, उनसे इन्कार नहीं किया जा सकता, परन्तु हमें यह विचार भी करना है, कि इस अशुद्ध रूप को ध्यान में रखकर ही हमें बैठे नहीं रहना है, रोते नहीं रहना है । इसके विपरीत हमें यह भी विश्वास करना चाहिए कि यह विकार और विकल्प आत्मा के अपने नहीं हैं । अध्यात्मवादी दर्शन नीच से नीच, तुच्छ से तुच्छ आत्मा में भी महानता का और पवित्रता का दर्शन करता है । अपनी आत्मा के प्रति ही नहीं, विश्व की प्रत्येक आत्मा के प्रति यह दृष्टिकोण रखना ही, अध्यात्मवादी दर्शन का मूल लक्ष्य है ।
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