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स्वभाव और विभाव
है, क्या करें ? क्रोध छूटता नहीं है । जीवन में जो गलत आदत पड़ गई है, वह छूट नहीं पाती है । और तो क्या, एक साधारण-सी बीड़ी पीने की अथवा तम्बाकू खाने की यदि आदत पड़ गई है, तो वह भी छूट नहीं पाती है । किसी को पान खाने की आदत पड़ जाती है, छोड़ते हैं, पर छूट नहीं पाती है । यह सब क्या है ? जो आदत हमने स्वयं ही डाली है, उसको हम स्वयं क्यों नहीं छोड़ पाते ? जब कभी मानव - दौर्बल्य की इस प्रकार चर्चा होती है, तो मैं यह कहता हूँ कि इन आदतों को एक दिन तुमने स्वयं ही तो डाला था, तब आज उन्हें तुम छोड़ क्यों नहीं सकते हो | यह क्या बात है, कि जिसे पकड़ा है, उसे छोड़ नहीं सकते । आवश्यकता है, केवल संकल्प शक्ति की । मन के विकल्पों से मन की शक्ति क्षीण होती है और संकल्प से मन की शक्ति बढ़ती है । अपनी आत्मा की अनन्त शक्ति को जागृत करने के लिए, सर्वप्रथम अपने मन की संकल्प शक्ति को जागृत कीजिए । मनुष्य के जीवन की शक्ति का केन्द्र ही एक मात्र उसके मन का संकल्प है । जब मानव-मन का संकल्प प्रबुद्ध और वेगवान् हो जाता है, तब बड़े-से-बड़ा कार्य भी उसके लिए आसान हो जाता है । उस समय एक आदत तो क्या, हजार-हजार आदतें भी क्षण भर में ही समाप्त हो सकती हैं । आत्म-रूपी सिंह इस जीवन रूपी वन में जब तक प्रसुप्त पड़ा रहता है, तभी तक काम, क्रोध, मद, लोभ, राग और द्वेष आदि के उपद्रव होते हैं, किन्तु आत्म-रूपी वनराज के प्रबुद्ध होते ही, न जाने ये सब कहाँ भाग जाते हैं । आत्मा में अनन्त बल है, यह सत्य है, परन्तु कब ? जबकि वह जागृत और प्रबुद्ध हो । आत्मा की शक्ति तभी अपने विकारों से संघर्ष कर सकती है, जबकि आत्मा जागरण की वेला में स्थिर हो, अपने साधना - पथ पर मजबूती के साथ कदम बढ़ाए | यह दीनता, यह हीनता और यह भिखमंगापन तभी तक है, जब तक आत्मा अपने आप पर आस्था नहीं कर पाता है और जब तक आत्मा अपने स्वरूप का परिबोध नहीं कर लेता है । आत्म-परिबोध के होने पर किसी भी आदत की यह ताकत नहीं है, कि वह हमारी इच्छा के विरुद्ध, हमारे मन के क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा रख सके । आवश्यकता केवल एक ही बात की है, और वह यह कि आत्मरूपी वनराज एक बार अँगड़ाई लेकर इस जीवन रूपी वन में तन कर खड़ा हो जाए और अपनी एक घनघोर गर्जना कर दे, तब आप देखेंगे, कि विकल्प और विकारों के क्षुद्र जन्तु
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