________________
स्वभाव और विभाव
सकता है और इसे हटाया जा सकता है, फिर भले ही वह बन्धन कर्म का आवरण हो, अथवा माया और अविद्या का हो ।
मैं आपके सामने जैन-दर्शन की और वेदान्त-दर्शन की चर्चा कर रहा था । वस्तुतः जैन-दर्शन की निश्चय-दृष्टि ने और वेदान्त की पारमार्थिक दृष्टि ने हताश और निराश मानव-जीवन को उत्साहित और प्रेरित करके अध्यात्मवादी मार्ग पर अग्रसर किया है । अध्यात्मवादी दर्शन यह कहता है, कि अन्य कुछ समझो या न समझो, यह तुम्हारी इच्छा की बात है, परन्तु 'आत्मानं विद्धि' आत्मा को अवश्य समझो । इस एक आत्मा के समझने से सब कुछ समझा जा सकता है । भारत का प्रत्येक गुरु अपने शिष्य से एक ही बात कहता है-तू, अपनी शक्ति का पता स्वयं लगा । मैं तो तेरे जीवन-विकास में एक निमित्त मात्र हूँ, उपादान तो तू स्वयं ही है । आत्मा की निज शक्ति को ही उपादान कहते हैं । प्रत्येक आत्मा अपने आप में परिपूर्ण है । केवल अन्दर में झाँकने की दृष्टि होनी चाहिए और अन्दर का पता लगाने के लिए, अन्दर की खोज चालू रहनी चाहिए । मैं कहा करता हूँ कि अन्दर में अनन्त शक्ति का अजस्र-स्रोत बह रहा है, किन्तु उसे देखने और परखने की दिव्य दृष्टि का हमारे पास अभाव है । यह दिव्य दृष्टि क्या है ? परमभाव-ग्राही और भूतार्थग्राही निश्चय नये को ही दिव्य दृष्टि कहा जाता है । वेदान्त में इसी को पारमार्थिक दृष्टि कहा गया है । जब तक अपने अन्दर ही अपने स्वरूप की खोज नहीं की जाएगी, तब तक कुछ भी अता-पता नहीं लगेगा । यह आत्मा अनन्त-अनन्त काल से मोह-मुग्ध रहा है । इसीलिए यह अपने स्वरूप को भूलकर बेमान पड़ा है । सबसे बड़ी साधना यही है कि इसकी मोह-निद्रा को दूर कर दिया जाए । किन्तु मोह-निद्रा को दूर करने वाला कौन है ? आत्मा के अतिरिक्त दूसरा कौन उसकी मोह-निद्रा को दूर कर सकता है ? इस आत्मा की वही दशा है, जो निर्जन वन में प्रसुप्त वन-राज केशरी सिंह की होती है । उसकी प्रसुप्त दशा में क्या स्थिति रहती है, इस सम्बन्ध में एक रूपक है, जो इस प्रकार है ।।
कल्पना कीजिए, एक विजन वन में एक सिंह प्रसुप्त अवस्था में पड़ा हुआ है । वह निद्रा के अधीन हो चुका है, उस समय आप देखते हैं, कि वन में क्या होता है ? चारों ओर उत्पात मच जाता है । चारों ओर शोरोगुल शुरू हो जाता है । जब सूने जंगल में वन का राजा सिंह अपनी माँद के आगे सोया पड़ा रहता है, उस समय उस जंगल के गीदड़,
-
२७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org