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स्वभाव और विभाव
विचारकों के विभिन्न विचार उपलब्ध होते हैं । परन्तु जीवन चेतना की एक अभिव्यक्ति है । इसमें किसी को किसी प्रकार का विचार-भेद नहीं हो सकता । जगत के सम्बन्ध में भी विभिन्न विचारकों ने अपने विभिन्न विचार प्रस्तुत किये हैं । कुछ कहते हैं, जगत् नित्य है और कुछ कहते हैं, जगत् अनित्य है । कुछ कहते हैं, प्रकृति का प्रपंच है, कुछ कहते हैं परमाणुओं का खेल है । और कुछ कहते हैं कि जगत् शून्य है, केवल ब्रह्म का ही विवर्त है । जगत् की चर्चा दूर चली जाती है, आज का हमारा प्रस्तुत विषय जीवन दर्शन ही है ।
मैं आपसे यह कह रहा था, कि दर्शन - शास्त्र का मुख्य विषय क्या है ? और दर्शनशास्त्र मानव-जीवन को क्या प्रेरणा देता है ? जीवन और जगत् जैसा है, उसे उस रूप में प्रतिपादित करना ही, वस्तुतः दर्शन का एक मात्र लक्ष्य रहा है । परन्तु हम यह देखते हैं, कि संसार में जितने भी जड़रूप और चेतनरूप पदार्थ हैं, उनके स्वरूप में और उनके लक्षण में विचारकों में परस्पर विभेद होते हुए भी, इस बात में कोई विचार - भेद नहीं है, कि विश्व के प्रत्येक पदार्थ में अपनी एक शक्ति रहती है । अगर देखा जाए, तो प्रत्येक पदार्थ की शक्ति सबसे बड़ी चीज है । संसार में हजारों चीजें हैं, अगर उनमें शक्ति नहीं है, तो कुछ भी नहीं है । वेदान्त शाखा के एक आचार्य ने बड़ी सुन्दर बात कही है । वह प्रश्न करता है कि “शिव, शिव क्यों है ? शिव में शिवत्व क्या है ? शिव को शिव बनाने वाला कौन है ?" अनन्तर उत्तर में वह कहता है, कि शिव के अन्दर रहने वाली शक्ति ही, शिव को शिव बनाती है । यदि शिव में शक्ति है, तो वह शिव है, नहीं तो शव है । शक्तिहीन शिव, शव कहा जाता है । शिव और शव में क्या भेद है ? व्याकरण - शास्त्र की दृष्टि से केवल शकारगत अ कार और इ कार का ही भेद है, किन्तु पदार्थ - विवेचन की दृष्टि से बहुत बड़ा भेद है । शिव का अर्थ है – आत्मतत्व और शव का अर्थ है— मृत कलेवर । शक्ति के कारण ही शव में शिवत्व है, किन्तु जब उसमें से शक्ति निकल जाती है, तब वह मात्र शव बन जाता है । शव, किसी प्रकार का संघर्ष नहीं कर सकता । जिन्दगी के किसी भी मोर्चे पर लड़ नहीं सकता । शव में लड़ने की और खड़े रहने की शक्ति नहीं होती, इसलिए जीवन के किसी भी मोर्चे पर वह विजय प्राप्त नहीं कर सकता । शव न भौतिक विकास कर पाता है और न आध्यात्मिक विकास ही कर पाता है । उसके भाग्य में विकास और
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