Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् का होता था। एक माष तोल २ रत्ती, द्विमाष ४ रत्ती का त्रिमाष ६ रत्ती का होता था। अर्धकाकिणी १/४ रत्ती, काकिणी १/२ रत्ती की और अघषि १ रत्ती का होता था (स्वामी ओमानन्द सरस्वती कृत-हरयाणा के प्राचीन लक्षण-स्थान पृ० १७)।
इस उपरिलिखित प्रमाण के अनुसार सूत्रोक्त मुद्राओं का तोल-विवरण निम्नलिखित हैमुद्रा का नाम एक मुद्रा अध्यर्ध द्वि-मुद्रा त्रि-मुद्रा (चांदी)
मुद्रा पण (कार्षापण) ३२ रत्ती ४८ रत्ती ६४ रत्ती ९६ रत्ती पद
८ रत्ती १२ रत्ती १६ रत्ती २४ रत्ती माष
२ रत्ती ३ रत्ती ४ रत्ती १२ रत्ती शत (कार्षापण) ३२०० रत्ती ४८०० रत्ती ६४०० रत्ती ९६०० रत्ती
रक्तिका (रत्ती) चिरमठी। काषण सोना, चांदी, ताम्बा तीनों धातुओं का होता था। यहां रजत (चांदी) का तोल बतलाया गया है। यत्-विकल्प:
(१७) शाणाद् वा।३५ । प०वि०-शाणात् ५।१ वा अव्ययपदम् । अनु०-आ-अर्हात्, अध्यर्धपूर्वात्, द्विगोरिति चानुवर्तते ।
अन्वय:-यथायोगं विभक्तिसमर्थाद् अध्यर्धपूर्वाद् द्विगोश्च शाणाद् आ-अर्हाद् वा यत्।
अर्थ:-यथायोगं विभक्तिसमर्थाद् अध्यर्धपूर्वाद् द्विगुसंज्ञकाच्च शाण-शब्दात् प्रातिपदिकाद् आ-अहीर्येष्वर्थेषु विकल्पेन यत् प्रत्ययो भवति, पक्षे च ठञ् प्रत्ययो भवति, तस्य च लुग् भवति ।
उदा०-(अध्यर्धपूर्वम्) अध्यर्धशाणेन क्रीतम्-अध्यर्धशाण्यम् (यत्) । अध्यर्धशाणम् (ठञ्-लुक्)। (द्विगु:) द्विशाणेन क्रीतम्-द्विशाण्यम् (यत्) । दिशाणम् (ठञ्-लुक्)। त्रिशाणेन क्रीतम्-त्रिशाण्यम् (यत्)। त्रिशाणम् (ठञ्-लुक्)।
आर्यभाषा: अर्थ-यथायोग विभक्ति-समर्थ (अध्यर्धपूर्वात्) अध्यर्ध पूर्ववाले और (द्विगो:) द्विगुसंज्ञक (शाणात्) शाण प्रातिपदिक से (आ-अर्हात्) आ-अीय अर्थों में (वा) विकलप से (यत्) यत् प्रत्यय होता है और उसका लुक होता है। '
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