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प्रकार मिल कर पालि' शब्द भी बुद्ध-वचन के ही अर्थ में प्रयुक्त होने लगा । भिक्षु सिद्धार्थ के मतानुसार 'पालि' शब्द की यही निरुक्ति है।
तीसरे मत का निर्देश करने से पूर्व इन दोनों मतों की कुछ समीक्षा कर लेना आवश्यक होगा। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से दोनों मत निर्दोष हैं। ध्वनि-परिवर्तन सम्बन्धी नियमों पर दोनों खरे उतरते हैं। दोनों एक दूसरे के विरोधी भी नहीं हैं। जहाँ तक वे भिन्न भिन्न हेतुओं से 'पालि' शब्द का तात्पर्य 'बुद्ध-वचन' में दिखलाते हैं, वे एक दूसरे के पूरक हैं। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भिक्षु सिद्धार्थ के मत की एक निर्बलता है। उन्होंने 'पाठ' शब्द का विकृत रूप 'पाळ' बतलाया है और फिर उससे 'पाळि' या 'पालि' शब्द की व्युत्पत्ति की है। इसे ऐतिहासिक रूप से ठीक
होने के लिये यह आवश्यक है कि पाळ' शब्द का प्रयोग पालि-साहित्य में उपलब्ध - हो। तभी उसके आधार पर 'पालि' शब्द की व्युत्पत्ति की स्थापना की जा सकती
है। ऐसा कोई उदाहरण भिक्षु सिद्धार्थ ने अपने उक्त निबन्ध में नहीं दिया। आचार्य बुद्धघोष की अट्ठकथाओं से जो उदाहरण उन्होंने दिये हैं, उनमें भी 'इति पि पाठो'ही बुद्धघोषोक्त वचन है, 'इति पि पाळो नहीं । जब वुद्धघोष के समय अर्थात् ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी तक 'पाठ' शब्द का वैसा ही संस्कृत का सा रूप पालि-साहित्य में मिलता है, तो फिर इम स्थापना के लिये क्या आधार है कि बुद्धकाल में ही संघ में आकर उसका रूप पाळ' हो गया था ? वास्तव में ऐतिहासिक दृष्टि से तो यही अधिक युक्तियुक्त जान पड़ता है कि 'इति पि पालि' के बाद ही, उससे पहले नहीं, 'इति पि पाठो' लिखना आरम्भ किया गया होगा, जव कि त्रिपिटक के पठन-पाठन का प्रचार कुछ अधिक बढ़ा होगा। श्रीमती रायस डेविड्स का भी यही मत है । अतः भिक्षु सिद्धार्थ की व्युत्पत्ति के लिये कोई अवकाश नहीं रह जाता। इस ऐतिहासिक आधार की कमी के कारण वह प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। भिक्षु जगदीश काश्यप के मत में ऐसी कोई कमी दिखाई नहीं देती। भाव शिलालेख का अद्वितीय साक्ष्य उसे प्राप्त है। 'पेय्यालं' शब्द में भी यही तत्व निहित है । अतः एक पूरी परम्परा का आधार लेने के कारण और इस कारण भी कि पालि साहित्य में उपलब्ध ‘पालि' शब्द के समस्त विकृत
१. देखिये उनका शाक्य और बुद्धिस्ट ऑरोजिन्स, पृष्ठ ४२९-३० २. देखिये पालि महाव्याकरण, पृष्ठ तेतालोस (वस्तुकथा)