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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
भगवती तथा पण्णजमा जैसे सैद्धांतिक ग्रंथों में इन अवस्थाओं का उल्लेख न मिलने से यह स्पष्ट है कि इन दश अवस्थाओं की अवधारणा बाद में विकसित हुई। दश अवस्थाओं का सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांग नियुक्ति में मिलता है। अ उमास्वाति ने नौवें अध्याय में इन अवस्थाओं का उल्लेख किया
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गुगश्रेणी-विकास की इन दश अवस्थाओं का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भद्रबाहू ने किया, इस कथन की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि आत्मा की निर्मलता या निर्जरा की तरतमता का ज्ञान या तो तीर्थंकर अपने अतिशायी ज्ञान से जान सकते हैं अथवा चतुर्दशपूर्वी अपने श्रुतज्ञान के वैशिष्ट्य से। निर्जरा की तरतमता सामान्यज्ञानी के लिए जान ना असंभव है अत: कहा जा सकता है कि गुणश्रेणी विकास की दश अवस्थाएं आचार्य भद्रबाहु की मौलिक देन है। सम्यक्त्व की उपलब्धि अनंत निर्जरा का कारण है अत: आचारांग की सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति में इन अवस्थाओं का वर्णन प्रासंगिक लगता
गुजरदार्थ सूत्रमार ने निको महत्पूर्ण समयकर स्वर के अंतर्गत तप के प्रसंग में निर्जरा का तारतम्य बताने वाली इन अवस्थाओं का समाहार किया है। वहां यह वर्णन प्रासंगिक जैसा नहीं लगता।
__ आचार्य उमास्वाति ने प्रथम अवस्था सम्यक्त्व-उत्पत्ति के स्थान पर सम्यग्दृष्टि तथा चौथी अवस्था अनंतकर्माश के स्थान पर अनंतवियोजक नाम का उल्लेख किया है। परवर्ती श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में कुछ अंतर के साथ इन अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। नामों के सूक्ष्म अंतर को निम्न चार्ट के माध्यम से जाना जा सकता है..
श्वेताम्बर परम्परा शिवशर्मकृत कर्मग्रंथ चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रंथ १. सम्यक्त्व-उत्पत्ति सम्यक्त्व
सम्यक् २. श्रावक देशविरति
दरविरति ३. विरत सम्पूर्ण विरति
सर्वविरति ४. संयोजना-विनाश अनंतानुबंधी विसंयोग अनंतविसंयोग ५. दर्शनमोहक्षपक दर्शनमोहक्षपक
दर्शनक्षपक ६. उपशमक उपशमक
शम ७. उपशांत उपशांत
शांत
१. तत्त्वार्थसूत्र ९/४७; सम्यग्दृष्टि श्रावकविरतानंतांडकोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपक-क्षीणमोहजिना:
कमोऽसंख्येयगुणनिर्जरा। २. कर्मप्रकृति (उदयकरण) ना. ३९४, ३९५;
सम्त्तुप्पा सावय, विरए संयोजगाविणासे य। दसणमोहक्लवगे, कसाय-उवसामगुवसते।।
नवगे य लीगमोहे, जिणे य दुविहे हने असंखगुणा। उदयो तबिवरीओ, कालो संख्लेजगुणसेढी।। ३. पंचसंग्रह, बंधवार मा. ३१४, ३६५
सम्मत्तदेससंपुन्नविरइउप्पत्ति अणविसंजोगे। दंसणखवणे मोहस्स. समणे उवसंत खवगे या
वीणाइतिगे असंखमुणियसेदिदलिप जहकमसो। सम्मत्ताईणेक्कारसह कालो उ संखसे।। ४. शतक, पंचम कर्म ग'. ८२;
सन्मदरसवदिरई, अगविसंजोयदंसलवगे य। मोहसमसंतखबगे, खीण-सजोगियर गुणसेदी।।