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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
गुणश्रेणी-विकास की दश अवस्थाओं में नौ की तो पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाएं हैं, जिनमें पूर्ववर्ती अवस्था की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा होती है लेकिन सम्यग्दृष्टि की पूर्ववर्ती अवस्था का उल्लेख नहीं हुआ है। स्वामीकुमार ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में मिथ्यात्वी की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि की अरख्यात गुणा अधिक निर्जरा स्वीकार की है। उनके अनुसार यह संभावना की जा सकती है कि सम्यग्दृष्टि की पूर्ववर्ती अवस्था निथ्यादृष्टि है क्योंकि उन्होंने मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि की असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा स्वीकार की है। यहां एक प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि क्या मिथ्यादृष्टि के भी निर्जरा संभव है? इस प्रपन के समाधान में कहा जा सकता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से मिथ्यात्वी की मिथ्यादृष्टि क्षयोपशम भाव है अत: वह जो कुछ सही जानता या देखता है. वह निर्जरा का कारण है। यदि मिथ्यादृष्टि आत्मिक उज्ज्वलता या निर्जरा का हेतु नहीं होती तो गुणस्थान-सिद्धान्त में प्रथम तीन भेदों को स्थान नहीं मिलता 1 आचार्य भिक्षु और जयाचार्य ने इस मत की पुष्टि में अनेक हेतु दिए हैं : लेकिन कुछ परम्पराएं मिथ्मादृष्टि को निर्जरा का हेतु नहीं मानतीं।
___ आचार ग. के काकार अवार्य शालाक ने सम्यक्त्व-उत्पत्ति से पूर्व की कुछ अन्य अवस्थाओं का वर्णन किया है। उनके अनुसार मिथ्यावृष्टि जीव. जिनके देशोन कोटाकोटि कर्म बाकी रहे हैं तथा जो ग्रंधिभेद के समीप पहुंच गए है, वे निर्जरा की दृष्टि तुल्य होते हैं। मिथ्यादृष्टि के बाद की निम्न पांच अवस्थाएं टीकाकार ने बताई हैं, जिनमें कमश: पूर्ववर्ती की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा होती है
१. धर्मपृच्छा के इच्छुक २. धर्मपृच्छा में संलग्न ३ धर्म के स्वीकार करने के इच्छुक ४. धर्मक्रिया में संलग्न ५. पूर्वप्रतिपन्न धार्मिक
नियुक्तिकार ने काल की दृष्टि से भी निर्जरा की तारतमता का संकेत दिया है किन्तु काल की दृष्टि से इसमें कम विपरीत हो जाता है । टीकाकार शीलांक इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक अयोगी केवली जितने काल में जितने कर्म खपाता है उतने कर्म एक सयोगी केवली उससे संख्येय गणा अधिक काल में खपाता है। इसी प्रकार सयोगी केवली जितने काल में जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म क्षीणमोह उससे संख्येय गुणा अधिक काल में खपाता है। काल की संख्धेय गुणा वृद्धि प्रतिलोम कम से चलती है।
इन दशा अवस्थाओं को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि नियुक्तिकार का मुख्य उद्देश्य निर्जरा की तरतमत' बताने वाली तथा मोक्ष के सम्मुख ले जाने वाली अवस्थाओं का वर्णन करना था न कि विकास की भूमिका पर ऋमिक आरोहण करने वाली भूमिकाओं का वर्णन करना। यह सत्य है कि हर पूर्व अवस्था की अपेक्षा उत्तर अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा है पर ये अवस्थाएं कमिक ही आएं, यह आवश्यक नहीं है। स्पष्टत: कहा जा सकता है कि सम्यक्त्व-प्राप्ति मोक्ष का प्रथम सोपान है और जिन १ कार्तिकेयानुनेक्षा ९/१०६ ।
३ आनि २२३; तत्विवरीतो काले,संखेजगुणाए सेढीए। २ आचरांगटीक पृ. ११८।
४. आचारांग टीका प्र. ११८ ।