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चलना नहीं सीखता। गिरते-पड़ते आखिर एक दिन दौड़ने भी लगता है। किसी विश्वविद्यालय का कुलपति एक दिन में उस पद पर आसीन नहीं हो जाता। उसके जीवन की शुरुआत तो तुतलाती भाषा से ही होती है। हम लोग भी जो धर्म के पथ पर चल रहे हैं, यह मानकर चलें कि आरम्भिक दौर में हम गिरेंगे भी, फिसलेंगे भी, दुनिया की मोह-माया भी लुभाएगी, कभी पत्नी का सिंदूर, कभी बहन की राखी, कभी माँ का आँचल, ये सब लोक-लुभावने रूप हैं, जो हमें रोकेंगे। लेकिन जो अन्तर्दृष्टि और बोधदृष्टि से समझेगा वह तो इन लोकलुभावन दृश्यों में भी उधर से आती हई किरण पर नज़र डाल ही लेगा। मगर जो खुद ही उल्लू बनकर बैठा है उसको अगर उधर से कोई किरण आती हुई दिखाई भी देगी तो वह अपनी आँख बंद कर लेगा, सोचेगा यह रोशनी कहाँ से आ गई। उसे यहीं पर सब कुछ अच्छा, प्यारा और रसभीना लगेगा।
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं जैसे कमल और कीड़ा । दोनों कीचड़ में होते हैं। कीड़ा कीचड़ में धंसता जाता है, पर कमल कीचड़ से बाहर निकल
आता है। जो कीचड़ में गया वह भव-सागर में गया, जो कमल बन गया वह मुक्त हो गया । हम सब लोग खूब प्यार, मोहब्बत, मिठास से रहें मगर यह बोध रखते हुए कि कहीं मोह, अभिमान और लोभ के कीचड़ में न फँस जाऊँ। हमें मुक्त होना है, कमल का फूल बनना है। भले ही कीचड़ में पैदा हुए हों पर स्वयं को कमल की भाँति ऊपर उठाएँगे। हमारी मृत्यु मृत्यु नहीं, मुक्ति का महोत्सव बन जाए। हमें मौत न आए वरन् मुक्ति का महोत्सव घटित हो। हमारी मृत्यु निर्वाण का पर्व बन जाए । हमारी आँखों में सदा अरिहन्त, सिद्ध, बुद्ध लोग बसे हुए रहें कि जिन्हें याद कर-करके हम लोग आगे बढ़ सकें । हम लोग गुलाब को अपना आदर्श बनाएँगे तो गुलाब तक पहुँचेंगे। चाँद-सितारों को अपना आदर्श बनाएँगे तो वहाँ तक पहुँचेगे। जिसको हम अपना आदर्श बनाएँगे उस तक आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों पहुँच ही जाएँगे। हमारा पुरुषार्थ भव्य और पराक्रमी होना चाहिए । परिणाम अपने आप आएँगे।
ऐसा हुआ कि मेरे हाथ में चोट लगी हुई थी तो जैसे ही सभा को सम्बोधित करके खड़ा होने लगा तो मुझे किसी के सहारे की आवश्यकता महसूस हुई। तभी एक युवक मेरे क़रीब आया। मैंने उसके हाथ में अपना हाथ
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