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महाकवि पुष्पदंत कृत महापुराण
इसिविट्ट सुपसत्थु जावेउ परमत्थु । तह खग्गु किणेय, जत्राहि कुश्वेिय।" (69/32)
वेद मूलतः ज्ञान को कहते हैं, वह जिस संथ में हो वह भी वेद कहा जाता है। नारद का कहना है कि 'वेद' हिंसामूलक नहीं हो सकता। उनका दूसरा तर्क यह है कि यदि 'वेद' पुरुषकृत नहीं है, तो प्रश्न उठता है कि वर्ण (क ख ग घ. आदि) आकाश में उत्पन्न होते हैं या मनुष्य के मुख में ? यदि आकाश में स्फरित होते हैं तो अक्षर कहाँ ? बिन्दु कहाँ ? अर्थ कहां और छन्द कहाँ ? जिसमें मन ने प्रयत्न किया है, ऐसे मनुष्य के मन्त्र के बिना उक्त चीजें (अक्षर, निन्दु आदि) पैदा नहीं हो सकते । फहाँ कार्य और कहा कारण ? कहाँ ज्ञान और कहाँ ज्ञेय ? कहीं आकाश में कमल ही मकता है : ही निरूप में शब्द हो सकता है ? अरे दूसरों का मांस निगलमेवाले द्विज (सभी नहीं) वेव में हिंसा कैसे?
"जई पोरिसेओ वि, णउ होइ भण तो वि। वण्णमणि गणिकि फरहपरवणि। अपसरई कहि बिंदु कहिं अत्य, कहि छंदु । कय मणपपत्तेण, विण परिसव सेग। कहि हैड कहि वेज, कहिं णाषु कहि गेउ। कहिं गगि प्रथितु णोवि कहि सदु ।।" (69.32)
नारव का उक्त तर्क वस्तुतः पुष्पदन्त का तर्क है जो एक भाषा वैज्ञानिक तकें है। 'वेद' उचरित या लिखित ज्ञान का नाम है जो वणी (स्वरों और व्यंजनों) वाला है, वणे (ध्वनि) आकाश में नहीं, मनुष्य के मुंह में ही स्फुटित होते हैं। वे अपने आप नहीं होते, स्थान और प्रयत्न के योग से ध्वनि की उत्पत्ति मानवमुख में होती है। (पुरुषवत्रण)। मनुष्य मुख से ध्वनि के उच्चारण के पूर्व गन प्रयत्न करता है । भाषा का आधार ध्वनि है। ध्वनि के उत्पन्न होने की उक्त व्याख्या वनि-उत्पत्ति की पुष्पदन्त की भाषा व्याख्या से पूरी मेल खाती है
"मात्मा बुद्धमा समेत्यन, मनो युद्ध.फ्ते विवक्षया। मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरपति मारुतम् ।।"
अर्थात् आत्मा बुद्धि से अर्थों को इकट्ठा करती है और बोलने की इच्छा से मन को प्रेरित करती है। मन कायाग्नि को उबुद्ध करता है, वह हवा (प्रागवायु) को प्रेरित करता है। उसमे स्वर पैदा होता है । इससे स्पष्ट है कि भाषा अभिव्यक्ति की मानसिक प्रक्रिया है। पुष्पदन्त का तर्क है कि वेद चाहे लिखित हों या उचरित, अमरात्मक होने से वह पौरुषेय है । कहने का अभिप्राय यह कि धर्म का निर्णायक तत्त्व मनुष्य का विवेक है। धर्म का काम धारण करना । जो चेतना का संहार करनेवाला हो, वह धर्म नहीं हो सकता।
"होई असिह धम्म हिसइ पाउणिहत्त"
(महापुराण 69/30)