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मालोपनारमक मुल्यांकन
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तभी उसकी कामाग्नि पाान्त होती है। प्रकृति की भिन्नता के आधार पर इनके भी मन्च, तीक्ष्ण तीमतर तथा विशुद्ध-अशुद्ध आदि भेद होते हैं।
यज्ञ-संस्कृति
नारद, पवर्तक और राजा वसु आचार्य क्षीरकवंच के शिष्य हैं। इनकी कथा तत्कालीन यश-संस्कृति और शिक्षा-व्यवस्था पर प्रकाश गलती है । पर्वतक आचार्य का पुत्र है । पढ़ने में निहायत कमजोर । आचार्यपत्नी पति से झगड़ा करती है। 'तुमने अपने बेटे को कुछ नहीं सिखाया, दूसरे के बेटों को विधान बना दिया।' यह सुनकर आर्य कहते हैं: "प्रमरों को गंध लेना, बगुलों को मछली पकड़ना किसने सिखाया? हंसों को नीर-क्षीर विवेक की शिक्षा किसने दी? शुभे! तुम्हारा बेटा जड़बुद्धि है जबकि यह नारद स्वभाव से ही पटु है। आचार्य दोनों से विविध प्रयोग करवाकर अपना कपन सिद्ध कर देते हैं। उस जमाने में पुस्तकों के बजाय, प्रकृति निरीक्षण और सहज तर्क से शिक्षा दी जाती थी। आपार्य ही शिक्षक और परीक्षक दोनौं था । बहुधा वह निष्पक्ष होता था। उस समय 'ताडन' की भी प्रथा थी। गुरु राजपुत्र की भी पिटाई से नहीं चकता था। एक दिन आचार्य क्षीरकदंब ने छड़ी से राजा वसु की जमकर पिटाई कर दी, यदि पत्नी नहीं मचाती तो उसका कचूमर निकल जाता । क्षौरकदंब, अन्त में, पुत्र पर्वतक और पत्नी दोनों नारद को सौंपकर तथा राजा वसु से कहकर जिनदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । बहुत दिन बाद 'मज्ज' शब्द के अर्थ को लेकर दोनों में विवाद हो जाता है। नारद के अनुसार, 'अज' का अर्थ तीन साल पुरामा जो है जबकि पर्वतक के अनुसार 'बकरा'। नारद के अर्थ के समर्थक दूसरे हिंसक बुद्धजीवियों ने पर्वतक को श्रावस्ती से निकाल बाहर कर दिया। लगता है, यज्ञसंस्तुति के विरोध का गाम
क समें होने वाला पशुवध था। अपमानिप्त और ऋद्ध पर्वतक की नील तमालवन में सालंकायण बिध से भेट होती है। वह एक शिलातल पर बैठा हा पेड़ की छांव में अपवित्र शास्त्र पढ़ रहा था। वास्तव में बह पूर्व जन्म का मधुपिंगल था, जिनका विवाह बुआ की लड़की सुलसा से होने वाला था। परन्तु राजा सगर का मंत्री मूठ सामुद्रिक शास्त्र की रचनाकर, उस लक्षणहीन बताकर, सगर से सुलसा का विवाह करवा देता है । हताश मधुपिंगल जैन मुनि बन जाता है। बाद में वस्तुस्थिति मालूम होने पर वह प्रतिशोध की भावना से प्राण त्याग कर स्वर्ग में असुरेन्द्र का वाहन बनता है । सगर से बदला लेने के लिए वह झूठी श्रुति का पाठ करता हुआ साथी की खोज में है। सालंकायण पर्वतक को पूर्व जन्म का गुरुभाई बताकर कहता है : मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ, मैं चाहता हूँ कि तुम्हें यह विद्या सौंपकर निश्चिन्त हो जा:
हा कंछुइ अज्नु परह मरमि णियविज्जा पई जि अलंकरभि । (69/29)
पर्वतक उसका शिष्य बन जाता है। सालंकायण कपटनीति और मंत्रशक्ति से राजा सगर और उसकी पत्नी मुलसा को यज्ञ में होम कर अपना बदला चुका लेता है। इस प्रकार व्यक्तिगत रागद्वेष के कारण यशों की हिसा और भी विकृत हो गई । नारद अयोध्या पहनकर इसका विरोध करता है। उसका तर्क है कि यदि ऐसा वेद, जो पशु मारने, हड्डियों चूर-चूर करने, चमड़े को छेदने-भेदने का विधान करता है, प्रशस्त है और ऋषियों के द्वारा देखा गया है, तो खड्ग (गेंडा) वेद क्यों नहीं ? कुविवेकी ! जा जा, हट यहाँ से।
"वणपरहं मारंतु मदिव्यई पूरंतु वम्मा छिरंतु यम्माई भिवंतु।