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स्वय से अधिक दुखी के दु.ख को दूर करने की बुद्धि रूप दया के परिणाम से स्वयं का दुःख एव उससे उत्पन्न दीनता नष्ट होती है। स्वय से अधिक सुखी का सुख देखकर उसमें हर्ष अथवा प्रमोदभाव धारण करने से स्वय के सुख का मिथ्यागर्व अथवा दर्प गल जाता है ।
दीनता अथवा दर्प, भय अथवा द्वेष, खेद अथवा उद्वेग आदि चित्त के दोषो का निवारण करने हेतु गुणाधिकृत की भक्ति एव दु खाधिकृत की दया ही सरल एव सर्वोत्तम उपाय है, उसे ही शास्त्र की परिभापा मे सवेग, निर्वेद गिनाया गया है। नमस्कार मे दोनो प्रकार के रस पोषित होने से जीव की मानसिक अशान्ति एव असमाधि उसके स्मरण से दूर हो जाती है। सेवन हेतु प्रथम भूमिका, अभय-अद्वेष-अखेद
नमस्कार मन्त्र की साधना से शुद्ध आत्मायो के साथ कुछ अभेद की साधना होती है । जहः अभेद वहाँ अभय-यह नियम है । भेद से भय एव अभेद से अभय-यह अनुभव सिद्ध है । भय ही चित्त की चचलता रूप वहिरात्मदशा रूप आत्मा का परिणाम है । अभेद के भावन से वह चचलता दोप नष्ट होता है एव अन्तरात्मदशा रूप निश्चलता गुण उत्पन्न होता है।
अभेद के भावन से अभय की तरह अप भी साधित होता है। द्वप अरोचक भाव रूप है वह अभेद के भावन से चला जाता है। अभेद के भावन से जैसे भय एव द्वष टल जाते हैं वैसे ही खेद भी नष्ट होता है । खेद प्रवृत्ति मे श्रान्त रूप है। जहाँ भेद वहाँ खेद एव जहाँ अभेद वहाँ अखेद अपने आप पा जाता है। नमस्कार मन्त्र के प्रभाव से जैसे अभेद वुद्धि दढ होती जाती है वैसे ही भय, द्वष एव खेद-दोष चले जाते हैं एव उसके स्थान पर अभय, अद्वेष एव अखेद गुण प्राता है ।