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जीव के रुष्ट होने पर शरीर में कंप, दाह, गले का सूखना, नेत्रों की लालिमा, मोहों का चढ़ाना, गोमांच का होना, पसीना आना आदि वाते शरीर में नहीं होनी चाहिये, कारण उसमें मित्रता है। जीवन को इस्छ। से शरीर की गति, प्रागति, हाथ, पैर, सिर तथा अंगुलियों का इलनचलन भी नहीं होना चाहिये, कारण वे पृथक है। सपूर्ण जीवों के केवलज्ञान, केवलदर्शन. अनंतवीर्यविरति. सम्यक्त्वादि हो जाना चाहिये. कारगर सिद्धों के समान, जीव से कर्मों का भित्रपना है। अथवा सिद्धों में अनंत गुणों का अभाव मानना होगा, किन्तु ऐसी बात नहीं है । अतः काविषीक सामनपसबिपिताम् जीनपहोवाचनको अभिन्न श्रद्धान करना चाहिये।
इस प्रकार की वस्तु-स्थिति को ध्यान में रखने वाले विश्व पुरुष को बसका कत्र्तव्य बदति हुए ब्रह्मदेव बृहद् द्रव्यसंग्रह में लिखते हैं:"यस्यैवामृतस्यास्मसः प्राप्त्यभावाद तससांग धमतोय जीवः स एवामूर्ती मूर्त-पंचेन्द्रिय-विषयत्यागेन निरन्तरं ध्यातव्यः" । गा. ७, पृ. २०)
इस जीवने जिस अमूर्त आत्मा की प्राप्ति के अभाव से घनादि संसार में भ्रमण किया है, उसी अमूर्त स्वभाष पात्मा का, मूर्त पंचेन्द्रिय के विषयों का परित्याग कर, निरन्तर ध्यान करना चाहिए ।
अकारवश स्वयं को सर्वोच्च तथा महान सोचने वाला व्यक्ति यदि अपने जीवन को उच्च गवं पवित्रता की भूमि पर नहीं ले जाता है, तो वह नरभव के जीयन-दीप बुझने के पश्चात् निकृष्ट पर्यायों को प्राप्त कर अनसकाल पर्यन्त विकास शून्य परिस्थिति में पड़कर अपने दुको का फल भोगा करता है।
कर्म बंधन मानने का कारण-पंचाध्यायी में कहा है:अहंप्रत्यय-वेद्यत्वाज्जीवस्या-स्तित्व-मन्वयात् ।। एको दरिद्रः एको हि श्रीमानिति च कर्मणः ॥ २ ॥५०॥
"मैं हूँ" इस प्रकार बई प्रत्यय से जीवका अस्तित्व अवगत होता है। एक दरिद्र है, एक धनवान है, यह भेद कर्म के कारण उत्पन्न हा है।
यदि कर्म रूप बाधक सामग्री न होती, दो यह जीव अपने मन : घिस् तथा पानंद स्वरूप में निमग्न रहा प्राता। गसी स्थिति का अभाव प्रत्यक्ष में अनुभव गोचर हो रहा है अतः इसका कारण प्रतिपक्षी साममी के रूप में कमो का अस्तित्व मानना तर्कसंगत है।