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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुर्विधिसागर जी महाराज है । अनुभाग घात अन्तबहुभागों का घात करके अनंतवें भाग को प्राप्त होता है । इस कारण इस अधःप्रवृत्तकरण के चरम समय में वर्तमान जीव के स्थितिघात और अनुभागवात नहीं होते हैं । "से काले दो वि यादा पत्तीहिति" तदनंतर काल में प्रर्थात् अपूर्वकरण के काल में ये दोनों ही घात प्रारंभ होंगे ।
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पूर्वोक्त चार सूत्रगाथा अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में प्ररूपित की गई हैं । 'दंसणमोह उवसामगस्स तिविहं करणं' (१७०७) - दर्शन मोह के उपशामक के अधःप्रवृत्तकरण, प्रपूर्वकरण और श्रनिवृत्तिकरण ये तोन करण होते हैं। करण का स्वरूप इस प्रकार हैं " येन परिणामविशेषेण दर्शन मोहोपशमादिविवक्षितो भावः क्रियते निष्पाद्यते स परिणाम विशेषः करणमित्युच्यते " -- जिस परिणाम विशेष के द्वारा दर्शन मोहनीय का उपशमादि रूप विवक्षित भाव संपादित होता है, उस परिणाम विशेष को करण कहते हैं । दर्शन मोह के तीन करण होते हैं । उस जीव के चौथी उपशामनाद्वा भी होती है "चउत्थी उवसामणद्धा ।" जिस काल विशेष में दर्शन मोहनीय उपशान्तता को प्राप्त हो स्थित होता है, उस काल को उपशामनाद्धा कहते हैं- "जम्हि श्रद्धाविसेसे दंसणमोहणीय मुवसंतावण्णं होण चिट्ठइ सा उवसामणद्धा त्ति भण्णदे" (१७०८)
अधः प्रवृत्तकरण — जिस भाव में विद्यमान जीवों के उपरितन समयवर्ती परिणाम अधस्तनसमयवर्ती जीवों के साथ सदृश होते हैं, उन भावों के समुदाय को अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं । गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहा है :
जम्हा उदरिमभावा हेद्रिमभावेहिं सरिसगा होंति । तम्हा पढमं करणं प्रधापवत्तोति गिट्टि ॥ ४८ ॥
यतः उपरितन समयवर्ती जीवों के भाव अधस्तन समयवर्ती जीवों के समान होते हैं, ततः प्रथम करण को प्रधःप्रवृत्तकरण कहते हैं ।