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मार्गदर्शक :
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रुप रहित प्रथम विभाग तो निक्षेप रूप है और अन्तिम दो भाग अतिगर जी महाराज
जब तक अनन्त स्पर्धक प्रतिस्थापना रूप से निक्षिप्त नहीं हो जाते हैं, तब तक अनुभाग विषयक अपवर्तना की प्रवृत्ति नहीं
होती है ।
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संकामेदुककडुदि जे असे ते अट्टिदा होंति । वलिय से काले तेरा घर होंति भजिदव्या ॥ १५३ ॥
जो कर्म रूप अंश संक्रमित, अपकर्षित या उत्कर्षित किये जाते हैं, वे श्रावली पर्यन्त अवस्थित रहते हैं अर्थात् उनमें वृद्धि हानि यादि नहीं होती । तदनंतर समय में वे भजनीय हैं, कारण संक्रमणावली के पश्चात् उनमें वृद्धि हानि श्रादि होती हैं, नहीं भी होती हैं।
विशेष - "जं प्रदेस गं परपथडीए संक्रामिज्जदि हिंदीहिं वा श्रणुभागेहि वा उक्कडिज्जदि तं पदेसग्यमावलियं ण सक्कं प्रोकडि वा संकामे वा ।" ( २००५ ) - - ज) प्रदेशाय परप्रकृति में संक्रांत किया जाता है, प्रथवा स्थिति और अनुभाग के द्वारा अपवर्तित किया जाता है वह प्रदेशाग्र एक आवली तक अपकर्षण या संक्रमण, उत्कणि या सक्रमण के लिए समर्थ नहीं है ।
कडुदि जे असे से काले ते च होति भजियव्वा । वड्डीए अबट्टा हाणीए संक मे उदए ॥ १५४ ॥
जो कम प्रकर्षित किए जाते हैं, वे नंतर काल में वृद्धि, अवस्थान, हानि, संक्रमण तथा उदय की अपेक्षा भजनीय हैं।
विशेष जो कर्मप्रदेशाय स्थिति अथवा अनुभाग की अपेक्षा अपकर्षित किया जाता है, बह तदनंतरकाल में ही पंण, उत्कण, संक्रमण वा उदीरणा को प्राप्त किया जा सकता है । "हिंदीहि वा अणुभागेहि वा पदसम्मोक हुज्जदि तं पदेस से काले चेव