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मोहनीय के क्षय के अनंतर अनंत केवलज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्ययुक्त होकर जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होते हैं। उन्हें सयोगी जिन कहते हैं । वे प्रसंख्यातगुणश्रेणी से कर्म प्रदेशार की निर्जरा करते हुए विहार करते हैं। "तदो प्रणंत केवलणाण-दंसणवीरित्तो जिणो केवली सव्वण्हू सव्वदरिसी भवदि सजोगिजिणो मार्गदशक्ति भवाचार्य असंसएस पदसणं णिज्जरेमाणो विहरदि
त्ति” । ( २२६८, २२७१ )
/ शंका - मोह का क्षय हो जाने पर के बिहार का क्या प्रयोजन है ?
१ समाधान - वे धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिए यथोचित धर्मक्षेत्र में महान विभूति पूर्वक देवों तथा असुरों से समन्वित हो विहार करते हैं । उनके विहार कार्य में प्रशस्त विहायोगति नाम कर्म भी अपेक्षा रहती है । ऐसा वस्तु स्वभाव है ।
| पंच भरत, पंच ऐरावत तथा प्रत्येक भरत, ऐरावत क्षेत्र संबंधी बत्तीस बत्तीस विदेह संबंधी एक सौ साठ धर्मक्षेत्र कुल मिलाकर एक सौ सत्तर धर्मक्षेत्र होते हैं । उनमें सर्वत्र यदि तार्थंकर भगवान उत्पन्न हों, तो एक सौ सरार तीर्थंकर अधिक से अधिक होते हैं । हरिवंशपुराणकार ने कहा है
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द्वीपे वतृतीयेषु ससप्तति - शतात्मके ।
धर्मक्षेत्रे त्रिकालेभ्यो जिनादिभ्यो नमो नमः ॥२२-२७।।
अढाई द्वीप में एकसौ सत्तर धर्मक्षेत्र हैं । उनमें त्रिकालवर्ती जिन भगवान श्रादि को बार बार नमस्कार है ।
१ धर्मतीर्थप्रवर्तनाय यथोचिते धर्मक्षेत्रे देवासुरानुयातो महत्या विभूत्या विहरति, प्रशस्त विहायोगतिसव्यपेक्षात्तत्स्वाभाव्यात् (२२७१)