Book Title: Kashaypahud Sutra
Author(s): Gundharacharya, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 321
________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ( २४५ ) समाधान- "कार्मणौदारिकशरीरद्वयावष्टम्भेन तत्र जीवप्रदेशानां परिस्पंदपर्यायोपलं भात् " - यहां कार्माण तथा प्रौदारिकशरीर द्वय के अवलंबन से जीवके प्रदेशों में परिस्पंद पर्याय उत्पन्न होती है। " तदो तदियसमये मंयं करोति" - तीसरे समय में केवली भगवान मंथन नामका समुद्रघात करते हैं। स्थिति और अनुभाग की पूर्ववत् निर्जरा होती है । इसको प्रसर तथा रुजक समुद्रघात भी कहते हैं "एस्स चैव पदरसण्णा रुजगसण्णा च प्रागमरुढिवलेण दवा " यह दो नाम श्रागम तथा रुढिवश कहे गए हैं। इस अवस्था में "कम्मइकायजोगी प्रणाहारी च काययोगी तथा अनाहारक होते हैं । जायदे " -- कार्माण - इस समुद्रघात में श्रात्मप्रदेश प्रतर रुप से चारों ओर फैल जाते हैं अर्थात् वातवलय द्वारा रुद्ध क्षेत्र को छोड़कर समस्त लोक में व्याप्त होते हैं। यहां उत्तर या पूर्व मुख होने रुपभेद नहीं पड़ता है। यहां मूल औदारिक शरीर के निमित्त से श्रात्मप्रदेशों का परिस्पंदन नहीं होता है। उस शरीर के योग्य नोक वर्गणाओं का श्रागमन भी नहीं होता है । " तदो चउत्थसमये लोगं पूरेदि " -- वे चौथे समय में समस्त लोक में व्याप्त हो जाते हैं । वे वातवलयरुद्ध क्षेत्र में भो व्याप्त हो जाते हैं । इस अवस्था में जीव के नाभि के नीचे के प्राठ मध्यम प्रदेश सुमेरु के मूलगत आठ मध्यम प्रदेशों के साथ एकत्र होकर उपस्थित रहते हैं। यहां कार्माण काययोग तथा अन्दाहारक श्रवस्था होती है । महावाचक श्रार्यमक्षु श्रमण के उपदेशानुसार यहां श्रायु धादि चारों कर्मों की स्थिति बराबर हो जाती है । महावाचक नाग हस्ति श्रमण के अनुसार शेष तीन कर्मों की तथा प्रायु की स्थिति

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