Book Title: Kashaypahud Sutra
Author(s): Gundharacharya, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 320
________________ 1 २४४ ) उत्तर दिशाकाऔिर आभमुख होकर यह समुद्वघात करते हैं । इसे खड्गासन से करने पर इसमें प्रात्म प्रदेश मूल शरीर प्रमाण विस्तार युक्त रहते हैं तथा वातवलय से न्यून चौदह राजू प्रमाण प्रायत दंडाकृति होते हैं । पदमासन से इस समुद्धात को करने पर दंडाकार प्रदेशों का बाहुल्य मूलशरीर बाहुल्य से तिगुना रहता है। "पलियंकासपेण समुहदस्स मूलशरीर-परियादो दंडसमुन्धादपरिदृमो तत्थ तिगुणो होदि" । इस समुदधात में औदारिक काययोग होता है । यहां अधातिया कर्मों की पल्योपम के असंख्यातवें भाग स्थिति के बहुभागों का घात होता है। यह कार्य प्रायु को छोड़ प्रघातियात्रय के विषय में होता है। क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्त में जो अनुभाग शेष बचा था, उसमें से प्रप्रशस्त अनुभाग के भी बहुभाग का घात करता है। "तदो बिदियसमए कवार्ड करेदि"—तदनंतर दूसरे समय में कपाट समुदधात करते हैं। इसमें अघातिया की शेष स्थिति के असंख्यात बहुभागों का घात करते हैं । शेष बचे अप्रशस्त अनुभाग के अनंत बहुभागों का घात करते हैं। जिस प्रकार कृपाट का बाहुल्य अल्प रहता है, किन्तु विष्कंभ और आयाम अधिक रहते हैं, इसी प्रकार कपाट समुद्रघात में केवली के प्रात्म प्रदेश वातवलयसे कम चौदह राजू लम्बे और सात राजू चौड़े हो जाते हैं। यह बाहुल्य खड्गासन युक्त केवली का है। पद्मासन में केवली के शरीर के बाहुल्य से तिगुना प्रमाण होता है। जो पूर्वमुख हो समुद्घात करते हैं, उनका विस्तार दक्षिण और उत्तर में सातराजू रहता है, किन्तु जिनका मुख उत्तर की प्रोर रहता है, उनका विस्तार पूर्व और पश्चिम में लोक के विस्तार के समान हीनाधिक रहता है। इस अवस्था में प्रौदारिक मिश्र काययोग कहा गया है । प्रश्न-यहां प्रौदरिक मिश्रकाययोग क्यों कहा है ? bij of a fotky chiroy

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