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पश्चिम स्कन्धाधिकार
द्वादशांग रूप जिनागम के अंतर्गत महाकम्मपयडि-पाहड है। उस परमागम के चतुर्विंशति अनुयोग द्वारों में पश्चिम स्कंध नामका अंतिम अनुयोग द्वार है।
प्रश्न- “महाकम्मपयडि-पाहुडस्स चउवीसाणियोगद्दारेसु पडिबद्धो एसो पच्छिमक्खंधाहियारो कथमेत्थ कसायपाहुडे परुविज्जदि त्ति णा संका कायव्वा"-महाकर्म प्रकति प्राभत के चौबीस अनुयोग द्वारों से प्रतिबद्ध यह पश्चिम स्कन्ध नामका अधिकार यहां कषाय पाहड में किस कारण कहा गया है. ऐसी आशंका नहीं करना चाहिही सुविधिसागर जी म्हारोज 1
समाधान-इस पश्चिम स्कन्ध अधिकार को महाकर्म प्रकृति प्राभत तथा कषायपाहुड से प्रतिबद्ध मानने में कोई दोष नहीं प्राता है "उहयत्थ वि तस्स पडिबध्दत्तब्भुवगमे वाहाणुवलंभादो" यह अधिकार "समस्त-श्रुतकन्धस्य चूलिकाभावेन व्यवस्थितः" २. संपूर्ण श्रुतस्कन्ध की चूलिका रूप से व्यवस्थित है।
पश्चिम स्कन्ध की व्युत्पत्ति इस प्रकार है "पश्चिमाद्भवः पश्चिमः" पश्चात्-उत्पन्न होने वाला पश्चिम है। 'पश्चिमवासी स्कन्धश्व पश्चिमस्कन्धः" पश्चिम जो स्कन्ध है, इसे पश्चिम स्कन्ध कहते हैं । घातिया कर्मों के क्षय होने के उपरान्त जो अघाति चतुष्क रूप कर्मस्कन्ध पाया जाता है, वह पश्चिम स्कन्ध है । "खीणेसु घादिकम्मेसु जो पच्छा समवलब्भइ कम वर्खयो अघाइचउक्कसरुवो सो पच्छिमक्खंधो त्ति भण्णदे" अथवा अंतिम औदारिक, तैजस तथा कार्माण , शरीर रूप नोस्कन्धयुक्त जो कर्मस्कन्ध है, उसे पश्चिम स्कन्ध । जानना चाहिये । )
इस अधिकार में केवली समुदधात, योगनिरोध प्रादि का । निरुपण किया गया है।