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गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
एकत्ब वितर्क प्रवीचार नामके शुक्लध्यान रूप अग्नि के प्रज्वलित होने पर क्षीणकषाय गुणस्थानवाला यथाख्यात संयमी छद्मस्थ धातिया अय रूप वन को भस्म करता है तथा छद्मस्थपर्याय से निकलकर क्षायिक लब्धि को प्राप्त कर लोक अलोक के समस्त पदार्थो का साक्षात् कारी ज्ञान वाला सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी बनता है। वे केवली भगवान धर्म तत्व को देशना द्वारा भव्य जीवों को श्रेयोमागं का दियध्वनि केरा देशोन एक कोटिपूर्व काल पर्यन्त उपदेश देते हैं ! ?
१ यावत्खलु छद्मस्थपर्यायान्न निष्कामति तावत् त्रयाणां घातिकर्मणां ज्ञानहगावरणान्तरायसंज्ञितानां नियमावदको भवति, अन्यथा छद्मस्थभावानुपपत्तेः । अथानंतरसमये द्वितीयशुक्लध्याग्निना निर्दग्धाशेष--घातिकमंद्रु मगहनः छास्थपर्यायान्निष्क्रान्तस्वरूपः क्षायिकी लब्धिमवा त्य सर्वज्ञः सर्वदर्शी च भूत्वा विहरतीत्ययमत्र गाथार्थसंग्रह ( २२७५ )
एवमेकत्ववितर्क-शुक्लध्यान-वैश्वानर-निर्दग्घधाति-कर्मेन्धनः प्रज्वलित केवलज्ञान-गस्तिमण्डलो मेघपंजर-निरोध-निर्गत इव धर्मरश्मि, भासमानो भगवांस्तीर्थकर इतरो वा केवली लोकेश्वराणामभिगमनीयोऽर्चनीयश्चोत्कर्षणायुषः पूर्व-कोटी देशोनां विहरति । सर्वार्थसिद्धि पृ. २३१ अ. ९ सूत्र ४४