Book Title: Kashaypahud Sutra
Author(s): Gundharacharya, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 324
________________ ( २४८ ) सूक्ष्म काययोगसे सूक्ष्मकाययोग का निरोध करते हैं तथा इन करणों को करते हैं। इनमें पूर्व स्पर्धकादि की रचना होती हैं । इसके बाद वे कृष्टियों को करते हैं ! कुद्धिकरण से तो जी महाराज पूर्व प्रपूर्व स्पर्धकों का क्षय करते हैं। उस समय अंतर्मुहुर्त पर्यन्त कृष्टिगत योगयुक्त होते हैं । उस समय वे सयोगी जिन तृतीय शुक्लध्यान - सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति को ध्याते हैं । तेरहवें गुणस्थान के अंतिम समय में कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग का क्षय करते हैं । इस प्रकार योगनिरोध होने पर सब कर्म ग्रायु की स्थिति के समान हो जाते हैं। वे प्रयोग केवली हो जाते हैं। उनके चौरासी लाख उत्तरगुण पूर्ण होते हैं तथा वे अठारह हजार भेदयुक्त शोल केईपने को प्राप्त होते हैं I शंका- योगी जिनको 'शीलेश' कहने का क्या कारण है ? सयोगी जिनमें संपूर्ण गुण तथा शील प्रकट हो जाते हैं, "सकलगुणशीलभारस्याविकल-स्वरुपेणाविर्भावः " ( २२९२ ) समाधान-प्रयोगी जिनके सपूर्ण श्रास्रव का निरोध हो गया है; इससे उन्हें शीलेश कहा है । सयोगी जिन के योगात्रव होता है | अतः सर्व कर्मों की निर्जरा है फल जिसका ऐसा पूर्ण संबर नहीं होता है- "योगास्त्रवमात्र सत्यापेक्षया सकलसंवरो निःशेषकर्मनिर्जरैकफलो न समुत्पन्नः " । इस कारण प्रयोगी जिन 'शोले' कह गए है | प्रश्न --- अंतर्मुहूर्त पर्यन्त वे प्रयोगोजिन लेश्या रहित हो शील के ईश्वरपने का अनुपालन करते हैं । उस समय "भगवन्ययोगिकेवलिनि कीदृशी ध्यानपरिणामः ? प्रयोग केवली भगवान के ध्यान का परिणाम किस प्रकार होता है ? समाधान - उस समय वे समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं। "समुच्छिकरियम नियट्टि सुक्कज्झाणं झार्यादि"

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