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मार्गदर्शक २४ालार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्वार्थसूत्र में इस ध्यान का नाम व्युपरतक्रिया निवृत्ति दिया गया है । ध्यान का लक्षण एकाग्र-चिन्ता -निरोध यहां घटित नहीं होता, कारण वे संपूर्ण पदार्थों का केवलज्ञान के द्वारा साक्षात् शान करते हैं। इससे यहां सयोगी जिन के समान ही उपचार से ध्यान को कहा गया है । "परमार्थवृत्या एकाग्रचिन्ता-निरोध-लक्षण ध्यान-परिणामस्य. ध्रु बोपयोगपरिणते केवलिन्य नुपपत्तेः"-परामार्थ वृत्ति से ध्रुवोपयोग परिणत केवलो के एकाग्रचिन्तानिरोध रूप ध्यान परिणाम की अनुपपत्ति है।
"ततो निरुद्धाशेषानबद्वारस्य केलिनः स्वात्मन्यवस्थानमेवा शेषकर्मनिरणकफलमिह ध्यानमिति प्रत्येतव्यम्" ( २२९३ ) इस कारण संपूर्ण प्रास्रव के द्वार रहित प्रयोगीजिन के अपनी प्रात्मा में अवस्थिति ही संपूर्ण कर्म की निर्जरा हो एक फल रूप ध्यान जानना चाहिये।
चतुर्थं स्यादयोगस्य शेषकर्मच्छिदुत्तमम् ।
फलमस्थाद्भुतं धाम परतीर्थ्यदुरासदम् ॥ चतुर्थ शुक्ल-ध्यान अयोगोजिन के होता है । यह शेष कर्मों के क्षयरूप श्रेष्ठ फल युक्त है। वह भद्भततेज युक्त है तथा मिथ्यामागियों के लिए संभव नहीं है।
मूलाचार में लिखा है :तत्तोरालियदेहो णामा गोदं च केवली जुगवं । पाउं च वेदपीयं खिवइत्ता पीरा होई ॥२३शा प्र. ११
वे प्रयोग केवली प्रौदारिक शरीर, नाम कर्म, गोत्र, आयु तथा वेदनीय का क्षय करके कर्म रज रहित होते हैं ।
वे चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में उदयरहित वेदनीय, देवगति, पांच शरीर, पांच संघात, पांच बंधन, छह संस्थान, तीन