Book Title: Kashaypahud Sutra
Author(s): Gundharacharya, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 314
________________ ( २३८ ) अध थीणगिद्धकम्म णिदाणिद्दा य पयलपयला य । अध गिरय-तिरियणामा मीणा संयोहणादीसु ॥ २ ॥ अष्ठ मध्यम कषायों के क्षय के पश्चात् स्त्यानगृद्धिकर्म, निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला, नरक गति तथा तिर्यंचगति संबंधो नामकर्म की त्रयोदश प्रकृति का संक्रमणादि करते हुए क्षय करता है । । विशेष-नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यवगति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी मीद्धिाविसमागमन्दिहारपति, उद्यात, आताप, एकेन्द्रिय जाति, साधारण, सूक्ष्म तथा स्थावर ये त्रयोदश नाम कर्म सम्बन्धी प्रकृतियां हैं। सव्वस्त मोहणीयस्स आणुपुब्बीय संकमो होई। लोभकसाए णियमा असंकमो होई ॥३॥ मोहनीय की सर्व प्रकृतियों का प्रानुपूर्वी से संक्रमण होता है । लोभ कषाय का संक्रमण नहीं होता है, ऐसा नियम है । संछुहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णवुसयं चेव । सत्तेव गोकसाए णियमा कोधम्हि संछुह दि ॥४॥ वह क्षपक स्त्रोवेद तथा नपुंसक वेदका पुरुषवेद में संक्रमण करता है । पुरुषवेद तथा हास्यादि छह नोकपायोंका नियमसे क्रोध में संक्रमण करता है। कोहं च छुद्दइ माणे माणं मायाए णियमसा छुइह । मायं च छुहइ लोहे पडिलोमो संकमो स्थि ॥५॥ संज्वलन क्रोधका मानमें, मानका मायाम तथा मायाका लोभमें नियमसे संक्रमण करता है। इनका प्रतिलोम (विपरीत कमसे ) सक्रमण नहीं होता।

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