Book Title: Kashaypahud Sutra
Author(s): Gundharacharya, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 299
________________ ( २२३ ) श्रुतज्ञानावरण कर्मो को सर्वघाति रूप से वेदन करता है । इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, तथा अन्तराय इन तीन घातिया कर्मो की जिन प्रकृतियों का क्षयोपशम प्राप्त हुप्रा है, उनका देशघाति अनुभागोदय है तथा जिनका क्षयोपशम नहीं हुमा है, उन प्रकृतियों का सर्वधाति उदय है। गाथा में आगत 'च' शब्द से अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्ययज्ञानावरणीय, चक्षु, प्रचक्षु तथा अवधिदर्शनावरणीय का ग्रहण करना चाहिए, कारण क्षयोपशम लब्धि की उत्पत्ति के वश से देश मागधाति रूप में इन नहीं करता है कारण क्षयोपशम लब्धि को उत्पत्ति के वश से देशघाति रूप अनुभागोदय की संभूति के विषय में भिन्नता का अभाव है। वह इन कर्मो के हो एक देश रूप अनुभाग का देशघाति रूप में वेदन नहीं करता है, किन्तु अंतराय की पंत्र प्रकृतियों का देशावरण स्वरूप अनुभाग को बेदन करता है, कारण लब्धि कर्म के सत्व के विषय में विशेषता का अभाव है। "एत्थ 'च' सदणि सेण मोहि-मणपज्जवणाणावरणीयाणं चवखु-अचवखुप्रोहिदसणाबरणीयाणं च गहणं कायव्वं, तेसि पि खग्रोवसमद्धिसंभववसेप देसघादिमणुभागोदयसंभवं पडि विसेसाभावादो। ण केवलमेदसि घेत्र कम्माणमणुभागमेसो दसधादिसरूवं बदेदि, किंतु अन्तराइए च-पं–तराइम पयहीणं मि देसावरण सन्त्रमणभागमेसो वेदयदे, लध्दिकम्मं सतां मडि विसेसाभावादो त्ति वुत्तं होई" ( २२२३ ) जसणाममुच्चगोदं वेदयदि णियससा अरणंतगुणं । गुणहीणमंतरायं से काले सेसगा भज्जा ॥२१२॥ क्षपक यशःकी ति नाम तथा उच्चगोत्र के अनंतगुणित वृध्दिरूप अनुभाग का नियम से वेदन करता है । अंतराय के अनंतगुणित

Loading...

Page Navigation
1 ... 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327