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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( २३१ )
विशेष – जो संग्रह कृष्टि उदीर्ण हुई है, उसके ऊपर भी कृष्टियों का असंख्यातवां भाग और नीचे भी कृष्टियों का प्रसंख्यातवां भाग ग्रनुदीर्ण रहता है । विवक्षित कृष्टियों के मध्यभाग में कृष्टियों का असंख्यात बहुभाग उदीर्ण होता है । उनमें जो अनुदीणं कृष्टियां हैं, उनमें से एक एक कृष्टि सर्व उदीर्णं कृष्टियों पर संक्रमण करती है ।
प्रश्न – एक एक उदीर्ण कृष्टि पर कितनी कृष्टियां संक्रमण करती है ?
/ समाधान - जितनी कष्टियां उदयावली में प्रविष्ट होकर उदयसे अधःस्थिति-गलनरूप विपाक को प्राप्त होती हैं, वे सब एक एक उदीर्ण कृष्टि पर संक्रमण करती हैं ।
जे चावि य अणुभागा उदीरिदा यिमसा पञ्चोगेण । तेयप्पा अणुभागा पुव्वपविट्टा परिणमति ॥ २२७॥
/ जितनी अनुभाग कृष्टियां प्रयोग द्वारा नियमसे उदीर्ण को जाती हैं, उतनी ही उदयावली प्रविष्ट अनुभाग कृष्टियां परिणत होती हैं ।
पच्छिम-छावलियाए समयूगाए दु जे य अभागा । उक्करस हेट्टिमा मज्झिमासु खियमा परिणमति ॥ २२८ ॥
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एक समय न्यून पश्चिम आावलीमें जो उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग स्वरूप कृष्टियां हैं, वे मध्यमवर्ती बहुभाग कृष्टियों में नियमसे परिणमित होती हैं ।
शंका- "पच्छिम - प्रावलिया त्ति का सण्णा ?" - पश्चिम आवली इस संज्ञा का क्या भाव है ?
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समाधान - " जा उदयावलिया सा पच्छिमावलिया” – जो उदयावली है, उसे ही पश्चिमावली कहते हैं ।