________________
( १४७ ) दर्शनमोह-क्षपणा-अनुयोगद्वार १ दसरणमोहक्खवगा पट्टवगो कम्मभूमिजादो ।
मार्गदर्शक:- अवार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज... णियमा मणुसगदीए गिट्ठवगा चावि सव्वत्थ ॥११०॥
कमभूमि में उत्पन्न हुग्रा तथा मनुष्यगति में वर्तमान जीब ही दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है । दर्शनमोह की क्षपणा का निष्ठापक ( पूर्ण करने वाला ) चारों गतियों में पाया जाता है ।
विशेष --- दर्शनमोह के क्षपणकार्य का प्रारंभ कर्मभूमिज मनुष्य ही करता है कारण "प्रकम्मभूमिजस्त य मणुसस्स च दंसणमोहखवणासत्तीए अच्चंताभावेन पडिसिद्धत्तादो"- अकर्मभूमिज मनुःयके दर्शनमोह के क्षपण को सामर्थ्य का सर्वथा प्रभाव होने उसका प्रतिषेध किया गया है।
कर्मभूमिज मनुन्य भी तीर्थंकर केवली, सामान्य केवली या श्रुतकेवली के पादमूलमें दर्शनमोह की क्षरणा को प्रारम्भ करता हैं, अन्यत्र नहीं।" कम्मभूमिजादो वि तित्थयर-केवलि-भुदकेवलोणं पादमूले दंशणमोहणीयं खवेदु माहवे इ पाण्णत्थ ।"
शंका --- मम्यग्दर्शन प्रात्मा की विशुद्धि है, उसके लिए बाह्य अवलंबन रुप केवला, शुत केबली के पादमूल को समोपता क्यों अावश्यक कही गई है ?
ममाधान- "अदिट्ठ-तित्थयरादिमाहण्यस्स दंगणमोहखवणणिबंधणकरण-परिणामाणमणुप्पत्तीदो” (१७३७)-तीर्थंकर आदि के माहात्म्य को न देखनेवाले मनुष्य के दर्शनमोहके क्षपण में कारण परिणाम उत्पन्न नहीं हो पाते ।
१ दंसण-मोहक्खवणा-पट्ठवगो कम्मभूमिजादो हु मणुसो केवलिमूले णिटुवगो होदि सव्वत्थ ॥६४८||गो.जी.