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जिस समय अन्तर संबंधी चरमफाली नष्ट होती है, उस समय उसे प्रथम समय कृत अन्तर कहते हैं तथा तदनंतर समय में उसे द्विसमय कृत अन्तर कहते हैं । अन्तर संबंधी चरमफाली के पतन होने पर नपुंसक वेद की कृपा में होता संख्यात सहन स्थितिrishi के बीतने पर नपुंसकवेद का पुरुषवेद में संक्रमण होता है ।
तदनंतर समय मे वह स्त्रीवेद का प्रथम समयवर्ती संक्रामक होता है। स्थिति कांडक के पूर्ण होने पर संक्रम्यमाण स्त्रीवेद संक्रान्त हो जाता है । तदनंतरकाल में वह सात नोकपायों का प्रथम समयवर्ती संक्रामक होता है । सात नोकषायों के संक्रामक के पुरुषवेद का अंतिम स्थितिबंध आठ वर्ष का स्थितिबंध सोलह वर्ष प्रमाण है । शेष मों का स्थितिबंध संख्यात हजार वर्ष है। नाम गोत्र और वेदनीय का असंख्यातवर्ष है । द्विसमयकृत अन्तर के स्थल से आगे छह नोकषायों को क्रोध में संक्रान्त करता है ।
| संज्वलन कषायों
वह क्रोध संज्वलन को मान संज्वलन में, मान संज्वलन को माया संज्वलन में, माया संज्वलन को लोभ संज्वलन में संक्रान्त करता है ।
अतिवृत्तिकरण गुणस्थान में अश्वकर्णक्रिया और कृष्टिकरण विधि द्वारा लोभ को सूक्ष्म रुपता प्रदानकर सूक्ष्मस पराय क्षपक होता है। सूक्ष्म लोभ का क्षपण होने पर क्षीणमोह गुणस्थान प्राप्त होता है । वह उपान्त समय में निद्रा, प्रचला का क्षय करके अन्त समय में पंच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पंच अन्तराय का क्षय करके केवली भगवान होता है । प्रयोग केवली उपान्त समय में बहत्तर प्रकृतियों का तथा अंत समय में त्रयोदश प्रकृतियों का क्षय करके सिद्ध परमात्मा होते हैं ।