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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
"किंचूण महत्तांति अंतोमुहृत्तांति णादव"--किंचित् ऊन मुहूर्त में अंतमुहूर्त जानना चाहिये झीणदिदि-कम्मसे जे वेदयदे दु दोसु वि हिदीसु । जे चाविण वेदयदे विदियाए ते दु वोद्धव्वा ।। १२६ ॥
जो उदय या अनुदयरुप कर्मप्रकृतियां परिक्षीण स्थितिवाली हैं, उन्हें उपयुक्त जीव दोनों ही स्थितियों में वेदन करता है। किन्तु जिन कर्माशों को वेदन नहीं करता है, उन्हें तो द्वितीय स्थिति में ही जानना चाहिये।
विशेष- "झीणटिदिकम्मसे" को सप्तमी विभक्ति मानकर यह अर्थ किया जाता है, कि वेद्यमान अन्यतर बेद तथा किसी एक संज्वलन के अतिरिक्त अवेद्यमान शेष एकादश प्रकृतियों के समयोन पावलोप्रमाण प्रथम स्थिति के क्षीण हो जाने पर जिन कर्मों का वेदन करता है, वे दोनों ही स्थितियों में पाये जाते हैं, किन्तु जिन्हे वेदन नहीं करता है, वे उसकी द्वितीय स्थिति में ही पाए जाते हैं। __ स्थिति मत्व तथा अनुभाग मत्य को कहते हैं:संकामणपट्टवगस्स पुधबद्धाणि मज्झिमट्टिदी । साद-सुहणाम-गोदा तहाणुभागे सुटुक्कस्सा ॥ १२७ ॥
संक्रमण-प्रस्थापकके पूर्वबद्ध कर्म मध्यम स्थितियों में पाये जाते हैं तथा अनुभागों में साता वेदनीय, शुभनाम तथा उच्चगोत्र उत्कृष्ट रुपसे पाये जाते हैं।
विशेष-- "मज्झिमदिदीसु अणुक्कस्स-अजहादीसु ति भणिदं होदि"- मध्यम स्थितियों से अनुत्कृष्ट-प्रजघन्य स्थितियों में यह अर्थ जानना चाहिए। ___ "साद-सुह-णामगोदा" आदि के साथ जो "उक्कस्स" पद पाया है, उसका भाव है "ण चेदे प्रोघुक्कस्सा तस्समयपानो गउक्कस्सगा एदे अणुभागेण" ( (१९७६) ये प्रकृतियां प्रोघरुप से