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तत्सम मार्गदर्शक:- आचा
ताग
( १८४ ) उत्कृष्ट नहीं ग्रहण करना चाहिये, किन्तु आदेश की अपेक्षा मार्गदतत्समयावायोग्या सुवाष्टसागहला कोरा चाहिये।
अथ थीणगिद्धि-कम्मं पिदाणिद्दा व पथलपयला य । तह गिरय-तिरियणामा झीणा संछोहणादीसु॥ १२८ ॥
आठ मध्यम कषायों की क्षपणा के पश्चात् स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा तथा प्रचलाप्रचला तथा नरकगति, तिर्यग्गति संबंधी त्रयोदश नाम कर्म की प्रकृतियां संक्रमण प्रस्थापक के द्वारा अंतमुहूर्त पूर्व ही सर्वसंक्रमणादि में क्षीण की जा चुकी हैं ।
विशेष--'अथ' शब्द द्वारा यह सूचित किया गया है, "ण केवलमेदापो चेव सोलसपयडीमो झोणालो किंतु अट्ठकसाया वि" केवल सोलह प्रकृति ही क्षीण नहीं होती हैं, किन्तु पाठकषाय भी क्षय को प्राप्त होती हैं। चूणिसूत्र से ज्ञात होता है कि सोलह प्रकृतियों के क्षय के पूर्व अष्टकषायों का क्षय किया जाता है "एदाणि कम्माणि पुबमेव झोणाणि । एदेणेव सूचिदा अट्ठवि कसाया पुब्वमेव विदा त्ति" ( १९७८ ) संकंतम्हि य णियमा णामागोदाणि वेयणीयं च । वस्सेसु असंखेजेसु सेलगा होति संखेज्जे ॥ १२६ ।। ___ हास्यादि छह नोकषाय के पुरुषवेदके चिरंतन सत्व के साथ संक्रामक होने पर नाम, गोत्र तथा वेदनीय प्रसंख्यातवर्ष प्रमाण स्थिति सत्व में रहते हैं। शेष ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म संख्यात वर्ष प्रमाण स्थिति सत्व में रहते हैं।
विशेष—"सेसगा होंति संखेज्जे" कथन का भाव है कि ज्ञानावरणादि चार धातिया कर्म नियम से संख्यात वर्ष प्रमाण स्थिति सत्व में विद्यमान रहते हैं। नाम, गोत्र एवं वेदनीय रुप तीन प्रघातिया असंख्यात वर्ष प्रमाण स्थिति सत्व में रहते हैं।