Book Title: Kashaypahud Sutra
Author(s): Gundharacharya, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 266
________________ ( १६० ) जो जम्हि संकुहंतो खियमा बंधसरिसम्हि संहइ | बंधे ही दरगे अहिए वा संकमो रात्थि ॥ १४० ॥ जो जीव बध्यमान जिस प्रकृति में संक्रमण करता है, वह नियमसे बंध सदृश प्रकृति में हो संक्रमण करता है अथवा बंत्रकी अपेक्षा होततर स्थितिवाली प्रकृति में संक्रमण करता है। वह अधिक स्थिति प्रकृतिमा राज Al विशेष – जो जीव जिस प्रकृति को संक्रमित करता है. यह नियमसे बध्यमान स्थिति में संक्रान्त करता है । जो जीव जिम स्थिति को बांधता है, उसमें अथवा उससे होन स्थिति में संक्रान्त करता है । वह अबध्यमान स्थितियों में उत्कीर्णकर संक्रान्त नहीं करता है । " अवज्झमाणासु द्विदीसु ण उक्कडिज्जदि" । समान स्थिति में संक्रान्त करता है - "समट्टिदिगं तु संकामेज्जदि" समान स्थिति में संक्रान्त करता है । ( १९९१ ) कामरणपटुवगो माणकसायरस वेदगो को । संदितो माणसाये कमो सेसे ॥ १४१ ॥ मान कषाय का वेदन करने वाला संक्रमण प्रस्थापक कौन संज्वलन को वेदन नहीं करते हुए भी उसे मनकषाय में सक्रान्त करता है । शेष कषायों में यही क्रम हैं । 1 विशेष - मान कषाय का संक्रमण प्रस्थापक मानको ही वेदन करता हुआ क्रोध संज्वलन के जो दो समय कम भावली प्रमाण नवबद्ध समयप्रबद्ध हैं, उन्हें मान संज्वलन में संक्रान्त करता है । " माणसायस्य संक्रामणपट्टवगो माणं चैव वेदेतो कोहस्स जं दो आवलियबंधा दुसमणा ते माणे संछुद्धि" । बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदेस - अणुभागे । अधिगो समो व हीयो गुण किंवा बिसेस रेण ॥ १४२ ॥ संक्रमण - प्रस्थापक के अनुभाग और प्रदेश संबंधी बंध, उदय तथा संक्रमण ये परस्पर में क्या अधिक हैं या समान हैं अथवा होन

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