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यशःको ति के सिवाय सभी शुभनाम कर्म की प्रकृतियों को ग्रहण करना चाहिए । १ सव्वावरणीयाणं जेसि ओवट्टणा दु णिहाए । पयलायुगस्स य तहा अबंधगो बंधगो सेसे ॥ १३३ ॥
जिन सर्वावरणीय अर्थात सर्वधातिया कर्मों की अपवर्तना होती है, उनका तथा निद्रा, प्रचला और आयु कम का भी प्रबंधक होता है । शेष कर्मों का बंधक होता है ।
विशेष-जिन कर्मों के देशघाती स्पर्धक होते हैं, उन कर्मों की अपवर्तना संज्ञा है । "जेपि कम्माणं देवघादिफ,याणि अस्थि, तेसि कम्माणमोवट्टणा अस्थित्ति मण्णा" ( १९८२ ।
जिन कर्मों के देशघाती स्पर्धक होते हैं, उन सर्वघातिया कर्मों को नहीं बांधता है; किन्तु देशघाती कर्मों को वांधता है। मतिज्ञानावरणादि चार ज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरणादि चार दर्शनावरण तथा पंच अंतराय कर्मों को बांधता है । "एदाणि कम्माणि देसघादीणि बंधदि" - ये कर्म देशघाती हैं। इनका बंध करता है। २ गिद्दा य णीचगोदं पचला णियमा अगित्ति णामं च । छच्चेय णोकसाया अंसेसु अवेदगो हादि ॥ १३४ ॥
निद्रानिद्रा, नीचगोत्र, प्रचलाप्रचला, स्थानगृद्धि, अयशःकोति,
१ अजसगित्तिणि सेण सब्वेसिमसुहणामाणं पडिसेहसिद्धोदो । मारी रगणामणि सणच वैश्वियसरीरादीणं सब्वेसिमेव सुहणामाणं जसगित्तिवज्जाणं बंधपडिसेहावलंबणादो (१९८१)
२ जाणावरणच उक्क तिदमण सम्मगं च संजलणं 1 गवणोकसाय-विग्धं छब्बीसा देसघादीयो ॥ ४० ॥ गो० ०