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चारित्रलन्धि अनुयोगद्वार चारित्र तथा संयम में कोई भेद नहीं है। चूणिसूत्रकार ने इस मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
अनुयोग द्वार कौँ चारित्र का अनुयोग द्वार कहा है । उन्होंने लिखा है "लद्धी तहा चरित्तस्से त्ति अणियोगद्दारे पुव्वं गमणिज्जं मुत्तं" ( १७९५ ) चारित्र लब्धि अनुयोग द्वार में पहले गाथा रूप सूत्र ज्ञातव्य है । ''तं जहा जा चेव संजमासंजमे भणिदा गाहा सा चेव एत्थ वि कायवा" वह इस प्रकार है । जो गाथा संयमासंयम लब्धि नामक अनुयोग द्वार में कही है, वही यहां भी प्ररूपण करना चाहिये । गुणधर प्राचार्य ने गाथा में "लद्धी तहा चरित्तस्स" ( ११५ गाथा) शब्दों का प्रयोग किया है । जयधवला टीका के मंगलाचरण में संयमलब्धि अनुयोग शब्द का उपयोग किया गया है ।
संजमिद-सयलकरणे णमसिउं सव्वसंजदे बोच्छ ।
संजमसुद्धिणिमित्त' संजमलद्धि त्ति अणिपोगं । - जिन्होंने संपूर्ण इंद्रियों को वश में कर लिया है, ऐसे संपूर्ण संयमियों को नमस्कार करके संयम की शुद्धि के निमित्त संयम लब्धि अनुयोग को कहता हूँ। • चूणिसूत्रकार कहते हैं “जो संजमं पढमदाए पडिवज्जदि तस्स दुविहा अद्धा प्रद्धापवलकरणद्धा अपुवकरणद्धा च” ( १७९७ ) जो संयम को प्रथमता से प्राप्त होता है, उसके अधःप्रवृत्तकरण काल तथा अपूर्वकरण काल इस प्रकार दो प्रकार काल कहा है।
शंका-यहां अनिवृत्तिकाल के साथ तीन प्रद्धा ( काल ) क्यों नहीं कहे --"एत्थ अणियट्टिअद्धाए सह तिष्पिा श्रद्धा कधं ण परूविदामो?" · समाधान-वेदक प्रायोग्य मिथ्यादृष्टि अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि के प्रथमता से संयम को स्वीकार करने वाले के अनिवृत्तिकरण नहीं पाया जाता है-"वेदगपाप्रोग्ग-मिच्छाइद्विस्स वेदगसम्मा