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१ प्रतिपातस्थान की व्युत्पत्ति इस प्रकार हैं "प्रतिपतत्यस्मादधस्तनगुणेष्विति ” नीचे के गुणस्थान में यहां से प्रतिपतन होने से मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज से प्रतिपात कहते है । जिस स्थान पर स्थित जीव मिथ्यात्व को, असंयम सम्यक्त्व ( ग्रसंजमसम्मत्तं ) वा संयमासंयम को प्राप्त होता है, वह प्रतिपात स्थान कहा गया है ।
जिस स्थान पर स्थित जोव संयम को प्राप्त होता है, उसे उत्पादकस्थान कहते हैं । इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है "संयम मुत्पादयतीत्युत्पादकः प्रतिपद्यमान इत्यर्थः तस्य स्थान मुत्पादक स्थानं पडिवज्जमापट्टाभिदि वृत्त होई" संयम को उत्पन्न कराता है, इससे उत्पादक कहते हैं । यह विशुद्विवश संयम को प्राप्त करता है ।
संपूर्ण चारित्र स्थानों को लब्धि स्थान कहते हैं । " सव्वाणि चेव चरितट्ठाणणि लद्धिद्वाणाणि" (१८०२ ) चूर्णिकार ने 'सर्व' शब्द ग्रहण किया है, उसमें प्रतिपाल स्थान, अप्रतिपात स्थान, प्रतिपद्यमान स्थान, अप्रतिपद्यमान स्थान इन सबका समावेश हुआ है। इसका दूसरा अर्थ यह किया गया है कि उत्पादक स्थान तथा प्रतिपात स्थान को छोड़कर शेष संयम स्थानों का यहां ग्रहण किया गया है । श्रतः श्रप्रतिपात तथा अप्रतिपद्यमान संयम लब्धि स्थान 'सर्व' शब्द द्वारा ग्रहण किए गए हैं ।
भरत, ऐरावत तथा विदेह सम्बन्धी पंचदश कर्मभूमियां हैं । उनमें उत्पन्न जीवों के प्रतिपद्यमान जघन्य संयन स्थानों की अपेक्षा कर्मभूमि में उत्पन्न जीवों के प्रतिपद्यमान जयन्य सबम स्थान अनंतगुणे कहे हैं ।
१ परिवादाणं णांम जम्हि हाणे मिच्छत्त वा असंजमसम्मतं वा संजमासंजम वा गच्छ तं पडिवादद्वाणं । उप्पादयद्वाणं पाम जहा जम्हि द्वाणे संजमं पडिवज्जइ तमुप्पादयद्वाणं णाम । (१८०२)