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( १५२ ) देशविरत अनुयोगद्वार
लद्वी या संजमा संजमस्स लद्धी तहा चरितस्स । वढावढी उवसामा य तह पुव्वन्द्वाणं ॥ ११५ ॥
संयमासंयम की लब्धि, सकल चरित्र की लब्धि, भावों की उत्तरोत्तर वृद्धि तथा पूर्वबद्ध कर्मों को उपशामना इस अनुयोगद्वार में वर्णनीय है ।
विशेष- इस एक ही गाथा द्वारा संयमासंयम लब्धि तथा संयमलब्धि का उल्लेख किया गया है |
हिंसादि पापों का एक देशत्याग संयमासंयम है। इसमें मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज त्रसवध का त्यागरुप संयम पाया जाता तथा स्थावरवध का त्याग न होने से प्रसंयम भी पाया जाता है । इस कारण इसे संयमासंयम या विरताविरत कहते हैं ।
गोम्मटसार जोवकाण्ड में कहा है:
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जो तसबहादु विरदो प्रविश्य तह यथावचहादो । एकसमयहि जीवो विरदाविरदो जिणेक्कमई ॥ ३१ ॥ जो सहिमासे विरत है तथा स्थावर हिंसा से अविरत है तथा आप्त, आगमादि में प्रगाढ़ श्रद्धावान् हैं, वह एक काल में विरताविरत कहा जाता है । गाथा में श्रागत 'च' शब्द का भाव है " चेत्यनेन प्रयोजनं विना स्थावरवधमपि न करोतीत्ययमर्थः सुज्यते" (पृष्ठ ६० संस्कृत टीका गो. जी.)- बिना प्रयोजन के वह स्थावर जीवों का वध भी नहीं करता ।
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देशविरत के देशचारित्र का घात करने वाली अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयाभाव से जो विशुद्ध परिणाम होते हैं, उसे संयमासंयम लब्धि कहते हैं। यहां संयमासंयमी के प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन तथा नव नोकषायों का उदय भी पाया जाता है; किन्तु यह विशेषता है " ते सिमुदयस्स सव्वधादित्ताभावेण देसोबस मस्स