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खवणाए पर्दुवी जम्हिचारिणयमसातदो अणणे । गणाधिगच्छदि तिषिणभवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि ॥११३॥ ___ दर्शन मोह की क्षपणा में प्रवर्तमान ( प्रस्थापक ) जीव जिस भव में प्रस्थापक होता है, उससे अन्य तीन भवो का उल्लंघन नहीं करता है ।
विशेष-- दर्शनमोह की क्षपणा करने वाला जीव अधिक से अधिक तीन भव और वारणकरके मोक्ष को प्राप्त करता है । “जो पुण पुब्बा उप्रबंधवसेणं भोगभूमिज-तिरिकाल-मणमोसुप्पज्न इ तस्म खवणाबवणभवं मोनण अण्णे तिfण मन्त्रा होति । तत्तो गनुण देवेसुज्जिय तदो चविय मणुस्सेसुप्पास्स णिधाणगमण-णियम दंमाझे"-जिम जीव ने पूर्व प्रायु का बंध करने के कारण भोगभूमिज तियं वपना या मनुष्यपना ग्राम किया है, उसके क्षपणा प्रस्थापन भव को छोड़कर अन्य तीन भव होंगे। वह भोगभूमि से देत्रों में उत्पन्न होगा, तथा वहां से चयकर मनुष्यों में पैदा होकर नियम से निर्माण गमन करता है । (१७३९) संखेज्जा च मगुस्सेसु खीणमोहा सहस्ससो णियमा । सेसासु खीरणमोहा गदीसु रिन्यमा असंखेज्जा ॥११४||
मनुष्यों में क्षीण-दर्शनमोही नियम से संख्यात सहस्र होते हैं । शेष गतियों में क्षीणदर्शनमोही नियम से असंख्यात होते हैं ।
विशेष-- यहां 'क्षी णमोह' शब्द द्वारा दर्शनमोह का क्षण करने वाला ही जानना चाहिए ! क्षीणमोह गुणस्थानप्राप्त अर्थ करना असंगत है। ____जो वेदक सम्यक्त्वी दर्शन-मोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है, वह पूर्व में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया तथा लोभ को विसंयोजना का कार्य पूर्ण करता है । "अविसंजोइदाणताणुबंधिचउक्कस्स दसणमोहवखवणपट्ठवणाणुववत्तीदो"- अनंतानुबंधी