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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज श्री !
( १३५ ) f... ... . ... हाला सव्वणिरय-भवणेसुदीवसमद्देगह-जोदिसि विमाण। मणी अभिजोगामणभिजोग्गो उवसामो होइ बोद्धव्यो ॥६६॥ ___ सर्व नरकों में, भवनवासियों में, सर्व-द्वीप-समुद्रों में, गुह्यों अर्थात् व्यंतरों में, ज्योतिषियों में, वैमानिकों में, प्राभियोग्यों में उनसे भिन्न अनभियोग्य देवों में दर्शन मोह का उपशम होता है ।
विशेष-वेदनाभिभव आदि कारणों से नारकियों के सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है. यह सूचित करने के लिए 'सव्व णिरय' पद दिया गया है। सर्व भवन वासियों में जिन-बिंब दर्शन, देवों की ऋद्धि दर्शन आदि कारणों से सम्यवत्व उत्पन्न होता है।
शंका-अढ़ाई द्वीप के आगे के समुद्रों में त्रस जीवों का प्रभाव है, वहां सम्यक्त्व की उत्पत्ति कैसे होगी ? "तसजीवविरहियेसु असंखेज्जेसु समुद्देसु कधं ?"
समाधान-सम्यक्त्व प्राप्ति के प्रयत्न में संलग्न तियंचों को कोई शत्र देव उन समुद्रों में ले जा सकता है। इस प्रकार वहां तिर्यंचों का सद्भाव सिद्ध हो जाता है-"पुन्धवेरिय-देव-पनोगेण णोदाणं तिरिक्खाणं सम्मत्त प्पत्तीए पयट्टताणं उवलंभादो ( १७२९ )
बाहनादि कुत्सित कर्मों में नियुक्त प्राभियोग्य देवों को वाहन देव कहते हैं "अभियुज्यंत इत्यभियोग्याः वाहनादौ कुत्सिते कर्मणि नियुज्यमाना वाहनदेवा इत्यर्थः" इन देवों से भिन्न किल्विषिकादि अनुतमदेव तथा पारिषदादि उत्तम देव अनभियोग्य जानना चाहिये। उवसामगो च सव्वो णिवाघादो तहा बिरासारणो। उवसंते भजियव्वा णीरासाणो य खीणम्मि ॥७॥ ___ दर्शन मोह के उपशामक सर्व जीव नियाघात तथा निरासान होते हैं । दर्शन मोह के उपशान्त होने पर सासादन भाव भजनीय है किन्तु क्षीण होने पर निरासान हो रहता है।