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सिद्ध होती है । जिस सम्यक्त्वी के क्षपणा वश या मिथ्यात्वी के उद्वेलनावश एक ही सम्यक्त्व प्रकृति या मिथ्यात्व प्रकृति शेष रही है, वह संक्रमण की अपेक्षा भजितव्य नहीं है, क्योंकि उसके संक्रमण शक्ति का प्रभाव है, इस कारण वह संक्रामक है । " एयं जस्स दु कम्मं एवं भणिदे जस्स सम्माइ ट्ठिस्स वा खवणुब्वेणावसेण सम्मत्त वा मिच्छत्त वा एकमेव संतकम्ममवसिद्ध ण सो संक्रमेण भणिज्जो । संक्रमभंगस्स नृत्य 'ताभावेण संकामगो चेव सो होइ त्ति भणिदं होइ " ( पृ० १७३४)
सम्माइट्ठी जीवो सद्दहदि पवयरणं शियमसा दु उवइयं । सद्दाम सुरुशिष्योग ॥१०७॥
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञोपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता है, किन्तु अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं न जानता हुआ गुरु के निमित्त से अद्भुत प्रर्थ का भी श्रद्धान करता है । (१)
पर
(प्रकर्षता को प्राप्त वचन प्रवचन है ऐ सर्वज्ञ का उपदेश, मागम तथा सिद्धान्त एकायं वाचक शब्द हैं । "परिसंजुत्तं त्रवणं पवणं सध्वण्होबएसो परमागमोति सिद्धत्तो ति एयट्टी"
सम्यग्दृष्टि श्रसद्भन अथं को गुरु वाणी से प्रमाण मानता हुआ स्वयं अज्ञानतावश श्रद्धान करता है । इससे उस सम्यक्वी में आज्ञा सम्यक्त्व का लक्षण पाया जाता है । असद्भूत श्रयं का श्रद्धान करने पर भी वह सम्यक्त्व युक्त रहता है । "परमागमोपदेश एवायमित्यध्यवसायेन तथा प्रतिपद्यमानस्यानवबुद्धपरमार्थस्थापितस्य सम्यग्दृष्टित्वाप्रच्युतेः " - यह परमागम का ही कथन है, ऐसा अध्यवसाय रहने से तथा प्रतिपद्यमान वस्तु के संबंध में
१ सम्माइट्ठी जीवो उवटु पवयणं तु सद्दहृदि ।
सहदि प्रसन्भावं प्रजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ गो०जी०