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सम्मत्तपढमलंभस्सारतरं पच्छदो य मिच्छतं । लभस्स पढमस्स तु भजियव्वो पच्छदो होदि ॥ १०५ ॥
सम्यक्त्व की प्रथम बार प्राप्ति के अनंतर तथा पश्चात् मिथ्यात्व का उदय होता है, किन्तु प्रथमबार सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् वह भजनीय है ।
विशेष – अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम बार सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, उसके पूर्वक्षण में तथा उपशम सभ्यऋव का काल समाप्त होने पर मिथ्यात्व का उदय कहा गया है, किन्तु अप्रथम बार अर्थात् दूसरी बार, तीसरी बार आदि बार जो सम्यक्त्व का लाभ होता है, उसके पश्चात् मिथ्यात्व का उदय भजनीय है । वह कदाचित् मिथ्यादृष्टि हॉफरक सभ्य की प्रतिष् उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है, कदाचित् सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।
जी महाराज
कम्माणि जस्त तिणि दु गियमा सो संकमेण भजियत्रो । एयं जस्स दु कम्मं संकमणे सो भजियच्वो ॥१०६ ॥
जिस जीव को सत्ता में मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृति विद्यमान है अथवा मिथ्यात्व के बिना या सम्यक्त्व प्रकृति के बिना शेष दो दर्शनमोह की प्रकृतियां मत्ता में हैं, वह जीव नियम से संक्रमण की अपेक्षा भजनीय है । जिसके एक ही दर्शन मोह को प्रकृति सत्ता में है, वह संक्रमण को अपेक्षा भजनीय नहीं है ।
विशेष - गाथा के प्रारंभ में 'दु' शब्द प्राया है, वह मिथ्यात्व अथवा सम्यक्त्व प्रकृति के बिना शेष दो प्रकृतियों को सूचित करता है ।
जिस मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव में दर्शनमोह की मिथ्यात्वादि तीन प्रकृति की सत्ता रहती है, उसके सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा मिध्यात्व का यथा क्रम से संक्रमण होता है ।