________________
भिन्नता नहीं पाई जाती है । अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करण गुणस्थानों में जिस प्रकार भावों का परिणमन होता है, वैसे ही लक्षण दर्शन मोह के उपशामक के करणत्रिक में पाये जाते हैं। इसी कारण उनके नामकरण में भिन्नता पाई नहीं जाती है।
उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले अनादि मिश्यादष्टि जीव के विषय में इस प्रकार प्ररुपणा की गई है कि उस जीव के अधःप्रवृत्त करपा में स्थिति-क्रांडक घात, अनुभाग-कांडक घात, मागणशेषी गौशाय साजहीये जाते हैं। वह अनंतगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता जाता है । "अघापव्रत्तकरणे द्विदिखंडयं वा अणुभागखंडयं वा गुणसेडो वा गुणसंकमो वा णस्थि केवलमणंतगुणाए विसोहीए बिसुज्झदि ।” (१७१४) वह जिन अप्रशस्त कर्माशों का बंध करता है, उन्हें विस्थानिक तथा अनंतगुणहीन बांधता है । जिन प्रशस्त कर्माशों को वह बांधता है, उन्हें चतुःस्थानिक तथा अनतगुणित बांधता है। "अप्पसत्यकम्मसे जे बंधइ ते दृट्ठाणिये अणंतगुणहीणे च, पसत्थकम्मसे जे बंधइ ते च चउद्याणिए अर्णतगुणे च" (१७१४)। एक एक स्थितिबंध-काल के पूर्ण होने पर वह पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन अन्य स्थितिबंध को बांधता है। इस प्रकार संख्यात सहन स्थितिबंधापसरणों के होने पर अधः प्रवृत्त करण का काल समाप्त हो जाता है ।
अपूर्वकरपा के प्रथम समय में जघन्य स्थितिखंड पल्योपम का संख्यातवां भाग तथा उत्कृष्ट स्थिति खण्ड सागरोपमपृथक्त्व है। अधःप्रवृत्तकरण के अंतिम समय में होने वाले स्थितिबंध से पल्योपम के संख्यातवें भाग से होन अपूर्व स्थितिबंध अपूर्वकरण के प्रथम समय में होता है । "अणुभागखंडयमप्पसत्थकम्मंसाणम. पंताभागा"-अप्रशस्त कर्माशों का अनुभाग खंडन अनंत बहुभाग होता है। प्रशस्त कर्मों में अनुभाग की वृद्धि होती है।