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{ १३४ ) अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में अन्य स्थिति खंड, अन्य स्थिति बंत्र तथा अन्य अनुभाग कांडकघात प्रारंभ होता है । इस प्रकार हजारों स्थितिकांडकघातों के द्वारा अनिवृत्तकरणकाल के संख्यात बहुभागों के व्यतीत होने पर वह जीव मिथ्यात्व कर्म का अंतर करता है। "अणियट्टस्स पढमसमए अण्णं टिदिग्दंडयं अण्णो ट्ठिदिबंधो अण्णमणुभागवइयं । एवं ट्ठिदिखंडयसहस्सेहि अणियट्टिप्रद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु अंतरं करेंदि" (१७१६)
निषेकों का प्रभाब करना अंतरकरण कहा जाता है। "णिसेगाणामभावीकरणमंतरकरणमिदि भण्णदे" ।
उस समय जितना स्थितिबंध का काल है, उतने काल के द्वारा अन्तर को करता हुआ गुणश्रेणीनिक्षेप के अग्रान से लेकर नीचे संख्यातवें भाग प्रमाणा - कोचडिशा कुमारीगर इस हाराज प्रकार अन्तरकरण पूर्ण होने पर वह जीव उपशामक कहा जाता है "तदोप्पटुडि उवसामगो ति भण्ण इ" (१७२०)
वह अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर उपशामक था तथा मिथ्यात्व के तीन खण्ड करने पर्यन्त उपशामक रहता है। दसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्वो। पंचिंदिय-सएणी [पुण] णियमा सो होइ पउजत्तो ॥१५॥ ___ दर्शन मोह का उपशम करने वाला जीव चारों गतियों में जानना चाहिए । वह नियम से पंचेन्द्रिय, संज्ञी तथा पर्याप्तक होता है।
विशेष -पंचेन्द्रिय निर्देश द्वारा एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रियों का प्रतिषेध हो जाता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय कहने से सम्यक्त्व उत्पत्ति को प्रायोग्यता प्रसंज्ञो पंचेन्द्रियों में नहीं है, यह सूचित किया गया है । लब्ध्यपर्याप्तक तथा निवृत्यपर्याप्तकों में भी सम्यक्त्व को को उत्पत्ति की प्रायोग्यता का प्रभाव है । (१) ।
चदुगति-भवो सण्णी पज्जत्तो सुज्झगोय सागारो। जागारो सल्लेस्सो सलद्धिगो सम्ममुवगमई ॥६५२॥ गो० जी०