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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज . . . ( १२८ )
यदि बुद्धायुष्क है, तो उसके आगामीबद्ध प्रायु का उदय नहीं होगा, ‘णवरि जइ पर भवियाउमत्थि तण्ण पविसदि ।'
गाथा में प्रश्न किया है "कदिण्हं वा पवेसगो' ?-कौन कौन प्रकृतियों का उदी रणारूप प्रवेशक है ?
विभाषा में कहते हैं, "सभी मूल प्रकृतियों का उदोरण रूप से प्रवेशक है।"
उत्तर प्रकृतियों में पंचज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, मिथ्यात्व पंवेन्द्रिय जाति, ते त्रस-कार्माण शरीर, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, प्रगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छ्वास, प्रस, वादर पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर-अस्थिर, शुभ अशुभ, निर्माण तथा पंच अन्त रायों का नियम से उदीरणा रूप से प्रवेशक है । इन प्रकृतियों को उदीरणा द्वारा नियम से उदयावली में प्रवेश करता है ।
माता -- असाता वेदनीय में से किसी एक का उदीरणा द्वारा उदयावली में प्रवेशक है । चार कपाय, तीन वेद, हास्यादि दो युगुलों में से अन्यतर अर्थात् किसी एक का प्रवेशक है। भयजुगुप्सा का स्यात् प्रवेशक है । चार प्रायु में से एक का प्रवेशक है। छह संहननों में से अन्यतर का प्रवेशक है। उद्योत का स्यात् प्रवेशक है। दो विहायोगति, सुभग-दुभंग, सुस्वर-दुस्वर, प्रादेय-प्रनादेय, यश:कीर्ति, अशयःको तिं इन युगलों में से अन्यतर को उदोरणा द्वारा उदयावली में प्रवेश करता है। के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा। अंतरवाहि किच्चाके के उवसामगोकहि ||६३॥
दर्शनमोह के उपशम के पूर्वबंध अथवा उदय की अपेक्षा कौन कौन कमांश क्षय को प्राप्त होते हैं ? कहां पर अन्तर को करता है ? कहा पर किन किन कर्मों का उपशामक होना है ?